________________
३६८ . जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [स्थूलभद्र द्वारा प्र० प्र० स्वर में कहा - "मेरे जीवनधन ! आपकी विरहाग्नि में विदग्धप्राया आपकी इस कामवल्लरी को अपनी मधुर मुस्कान के अमृत से पुनरुज्जीवित कीजिये।"
मुनि स्थूलभद्र पूर्णतः निर्विकार और मौन रहे।
अपनो कारुण्यपूर्ण कामाभ्यर्थना का आर्य स्थूलभद्र पर कोई प्रभाव न होते देख कर कोशा के अन्तर में प्रसुप्त नारीत्व का अहं पूर्ण रूपेण जागृत हो उठा। उसने त्रियाचरित्र के समस्त अध्यायों को खोलते हुए आर्य स्थूलभद्र पर क्रमशः अपने अमोघ कटाक्ष-बाणों, विविध हावभावों के सम्मोहनास्त्रों और हृदय को हठात् आबद्ध करने वाले करुणक्रन्दन, मूर्छा, प्रलाप, विविध व्याज आदि नागपाशों का, पुनः पुनः प्रयोग करना प्रारम्भ किया। पर जिस प्रकार वज्र पर किया गया नखों का प्रहार नितान्त निरर्थक और निष्प्रभाव होता है, ठीक उसी प्रकार एकान्ततः आत्मनिष्ठ महामुनि स्थूलभद्र पर कोशा द्वारा किये गये समस्त कामोद्दीपक कटाक्ष-प्रहार पूर्णरूपेण व्यर्थ ही गये । ज्यों-ज्यों स्थूलभद्र को साधनापथ से विचलित करने के अभिप्राय से कोशा द्वारा कामोत्तेजक प्रहारों में क्रमशः तीव्रता लाई गई त्यों-त्यों मुनि स्थूलभद्र के ध्यान की एकाग्रता उत्तरोत्तर वढ़ती ही गई । कोशा ने निरन्तर बारह वर्ष तक अपने साथ स्थूलभद्र द्वारा पूर्व में की गई कामकेलियों का स्थूलभद्र को स्मरण दिलाते हए उस ही प्रकार की कामकेलियां पुनः करने के लिये बारम्बार असीम प्रेम के साथ आमन्त्रित किया, उत्तेजित किया पर सब व्यर्थ । कोशा प्रतिदिन मुनि स्थूलभद्र को षडसमय अनेक प्रकार के स्वादिष्ट भोजन कराती और उन्हें विषय सुखों के उपभोग के लिये आमन्त्रित करती हुई नित्यप्रति नवीनतम उपायों का प्राश्रय ले उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने का अहर्निश प्रयास करती रहती किन्तु स्थूलभद्र मुनि किंचित्मात्र भी विचलित हुए बिना निरन्तर इन्द्रियदमन करते हुए साधनापथ पर उत्तरोत्तर आगे की ओर बढ़ते रहे । अन्ततोगत्वा चातुर्मास का अवसान होते-होते कोशा ने अपनी हार स्वीकार करते हए हताश हो मुनि स्थूलभद्र को अपनी ओर आकर्षित करने के सभी प्रयास समाप्त कर दिये । महायोगी स्थूलभद्र का इन्द्रियदमन में अदृप्टपूर्व अलौकिक सामर्थ्य देख कर कोशा स्थूलभद्र के समक्ष अपना मस्तक झुकाते हुए पश्चात्ताप भरं स्वर में कहने लगी"क्षमासागर महामुने ! मेरे सब अपराध क्षमा कर दीजिये। मुझ मूर्खा को अनेकशः धिक्कार है कि मैंने अज्ञानवश पहले की तरह आपको विषयोपभोगों की प्रोर आकर्षित करने का विफल प्रयास किया। कज्जलगिरि की गुफा में रह कर कोई अपने आपको कालिमा से नहीं बचा सकता पर ग्रापने इस असभव कार्य को सम्भव कर बताया है । असाध्य को सिद्ध करने वाले योगिराज ! पापको सहस्रशः नमस्कार है।"
मुनि स्थूलभद्र के उपदेश से कोशा ने धर्म में अपनी प्रगाढ़ श्रद्धा अभिव्यक्त करते हुए मुनि स्थूलभद्र से श्राविका-धर्म अंगीकार किया और वह पूर्ण विशुद्ध मनोभावों के साथ उनकी सेवा करने लगी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org