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स्थूलभद्र द्वारा अ० अभिग्रह] दशपूर्वधर - काल : आर्य स्थूलभद्र
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आचार्य सम्भूतविजय ने अपने विशिष्ट ज्ञानोपयोग से क्षण भर विचार कर प्रार्य स्थूलभद्र को उस कठोर साधना में समुत्तीर्ण होने के योग्य समझा और उन्हें कोशा वेश्या की चित्रशाला में चातुर्मास व्यतीत करने की आज्ञा प्रदान कर दी ।
आचार्य सम्भूतविजय की प्रज्ञा प्राप्त कर चारों शिष्य अपने-अपने अभीष्ट स्थान की प्रर प्रस्थित हुए । प्रथम तीनों शिष्य अपने-अपने उद्दिष्ट स्थान पर पहुंच कर ध्यानमग्न हो गये । उनके तपोपूत शान्त प्रात्मतेज के प्रभाव से सिंह, सर्प और कुएं का माण्डका ये तीनों ही क्रमशः उन तीनों मुनियों के समक्ष शान्त एवं निरापद हो गये । उन तीनों मुनियों ने पृथक्-पृथक् उन तीन स्थानों पर चार मास के लिये अशन-पानादि का परित्याग कर ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया ।
आर्य स्थूलभद्र भी कोशा वेश्या के भव्य भवन के प्रांगण में पहुंचे । चिरप्रोषित अपने जीवनधन को देखते ही कोषा हर्षोत्फुल्ल हो हाथ जोड़े शीघ्रतापूर्वक मुनि स्थूलभद्र के सम्मुख उपस्थित हुई। उसने मन ही मन सोचा कि जन्मजात सुकुमार स्थूलभद्र संयम के दुर्वह विपुल भार से अभिभूत होकर सदा-सर्वदा उसके पास रहने के लिये ही आये हैं । सस्मित सुमधुर स्वर में कोशा ने कहा - "स्वामिन् प्रापकी जन्म-जन्म की यह दासी आपका स्वागत करती है । अपने अभीष्ट की अभिनिष्पत्ति हेतु प्रज्ञा प्रदान कर इसे कृतार्थ कीजिये । जीवनधन ! यह तन, मन, धन, जीवन और सर्वस्व आपके चरणों पर समर्पित है ।"
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मुनि स्थूलभद्र ने कहा - "श्राविके ! चार मास तक तुम्हारी चित्रशाला में निवास करने की स्वीकृति दो ।"
"स्वामिन् ! चित्रशाला प्रस्तुत है, इसमें विराजिये और सेविका को कृतार्थ कीजिये ।" हर्ष से पुलकितांगी कोशा ने कहा ।
अपने श्रात्मबल पर पूर्णरूपेण प्राश्वस्त प्रार्य स्थूलभद्र ने रती की रंगस्थली के समान सहज ही कामोद्दीपिनी उस चित्रशाला में प्रवेश कर वहां अपना आसन जमाया | मधुकरी के समय कोशा ने मुनि स्थूलभद्र को स्वादुतम षड्रस भोजन करवाया । आहार आदि से मुनि के निवृत्त हो जाने के उपरान्त सोलह शृंगारों से विशिष्ट रूपेण सुसज्जित कोशा ने चित्रशाला के समस्त दायुमण्डल को अनेक प्रकार की सुगन्धियों से मादक और अपने नूपुरों की झंकार से चित्रशाला को मुखरित करते हुए मुनि स्थूलभद्र के समक्ष उपस्थित हो उन्हें प्रणाम किया ।
लौकिक रूपसुधा के उद्वेलित सागर के समान उस कोशा की मुखमुद्रा से उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कोई अनुपम सुन्दरी सुरबाला अपने अप्रतिम सौन्दर्य से त्रिभुवन पर प्रपनी विजयवैजयन्ती फहराने के लिये कृतसंकल्प हो । उस प्रतिकमनीय कान्तारत्न कोशा ने कतिपय वीरणाओं के कसे हुए पतील तारों की लययुक्त प्रति कोमल एवं कर्णप्रिय युगपद् भंकार के समान प्रति सम्मोहक
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