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महामात्य पद दशपूर्वधर-काल : आर्य स्थूलभद्र
__ कहीं प्रार्य स्थूलभद्र पुनः कोशा वेश्या के ग्रह की ओर तो नहीं लौट रहे हैं इस अाशंका से राजा नन्द अपने प्रासाद के गवाक्ष से राजपथ पर जाते हए आर्य स्थूलभद्र की ओर देखने लगे । जब महाराज नन्द ने देखा कि प्रार्य स्थूलभद्र नगर की घनी बस्ती वाले मुहल्लों से मुख मोड़कर सुनसान श्मशानों और निर्जन एकान्त स्थलों को भी पार करते जा रहे हैं तो नन्द का मस्तक सहसा श्रद्धा से झुक गया। उसने पश्चात्तापपूर्ण स्वर में कहा- "मुझे खेद है कि मैंने ऐसे महान् त्यागी महात्मा के लिये भी अपने मन में कुविचार को स्थान दिया।"
स्थूलभद्र की दीक्षा और वररुचि का मरण स्थूलभद्र ने भव्य भवन, सुर सुन्दरी-सी कोशा और नव्य-भव्य भोगों का तत्क्षरण उसी प्रकार परित्याग कर दिया, जिस प्रकार कि सर्प कंचूकी को छोड़ता है। वे तन, धन, परिजन का मोह छोड़कर पूर्ण वैराग्यभाव से नगर के बाहर विराजमान प्राचार्य संभूतविजय के पास पहुंचे और सविनय वन्दन के पश्चात् उनकी चरणशरण ग्रहण कर वीर नि० सं० १४६ में उन्होंने श्रमण-दीक्षा स्वीकार कर ली।
समस्त श्रमरणचर्या का निर्दोषरूप से पालन करने के साथ-साथ, सविनय गुरुपरिचर्या, दीक्षावद्ध थमणों की सेवा-सुश्रुषा एवं तपश्चरण द्वारा अपने कर्मन्धन को भस्मसात् करते हए मुनि स्थूलभद्र अपने गुरू प्राचार्य सम्भूतविजयजी के पास वड़ी तन्मयता से शास्त्रों का अध्ययन करने लगे।
आर्य स्थूलभद्र के चले जाने के अनन्तर महाराज नन्द ने श्रीयक को मगध का महामात्य बनाया। कुशल राजनीतिज्ञ श्रीयक ने अपने पिता शकटार की तरह बड़ी निपुणता के साथ राज्य का संचालन करते हए मगध की श्री में अभिवृद्धि करना प्रारम्भ किया। महाराज नन्द अपने स्वर्गीय महामात्य शकटार के समान ही अपने युवा महामात्य श्रीयक का समादर करते थे। महामन्त्री शकटार की मृत्यु के पश्चात् वररुचि भी नित्यप्रति नियमित रूप से महाराज नन्द की सेवा में उपस्थित होने लगा। वह पुनः राजा और प्रजा का शनैः शनैः सम्मानपात्र बन गया।
श्रीयक समय निकालकर अपने ज्येष्ठ सहोदर स्थूलभद्र के प्रवजित होने के कारण दुखित कोशा वेश्या को सान्त्वना देने हेतु उसके घर पर जाते रहते थे। श्रीयक को देखकर अपने प्राणाधिक प्रिय स्थूलभद्र के विरह-जन्य दुःख से विह्वल हो कोशा फूट-फूटकर रोने लगती। अपने सहोदर के प्रति कोशा का निस्सीम प्रेम देखकर श्रीयक के मन में कोशा के प्रति आदर एवं प्रात्मीयता के भाव दिनप्रतिदिन बढ़ते ही गये।
शकडाल की मृत्यु के पश्चात् वररुचि निर्भय होकर रहने लगा। राज्य सारा प्राप्त मम्मान के मद में मदान्ध हो वररुचि पथभ्रप्ट एवं वेश्यागामीबन गया। ग्रहनिश उपकोशा के संसर्ग में रहते-रहते वह शीघ्र ही मद्यपायी बन गया।
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