________________
३९३ .
वररुचि का षड्यन्त्र] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य स्थूलभद्र मृतक की प्रौद्धदैहिक क्रियाओं की समाप्ति के अनन्तर नन्द ने श्रीयक से मगधराज्य के महामात्य पद को स्वीकार करने की अभ्यर्थना की।
श्रीयक ने विनम्र स्वर में कहा - "मगधेश्वर ! मेरे ज्येष्ठ भ्राता स्थूलभद्र मेरे पिता के समान ही योग्य हैं । अतः आप महामात्य का पद उन्हें ही प्रदान करें। मेरे पितश्री के निस्सीम स्नेह के प्रसाद से वे विगत बारह वर्षों से कोशा वेश्या के निवासस्थान पर ही रहते पा रहे हैं!"
महामात्य पद महाराज नन्द ने तत्काल अपने उच्चाधिकारियों को आदेश दिया कि वे पूर्ण सम्मान के साथ स्थूलभद्र से निवेदन करें कि मगधाधिराज उनसे मिलने के लिये बड़े उत्सुक हैं।
पर्याप्त प्रतीक्षा के पश्चात् प्रोन्नतभाल, व्यूढोरष्क, वृषस्कन्ध, प्रलम्बबाहु, सुगौरवर्ण अत्यन्त सम्मोहक व्यक्तित्व वाले एक तेजस्वी युवक ने धीर-मन्थर गति से मगधपति के राजभवन में प्रवेश कर महाराज नन्द को प्रणाम करते हुए कहा- "मगधराज्य के स्वर्गीय महामात्य श्री शकटार का पुत्र स्थूलभद्र मगध के महामहिम सम्राट् महाराज नन्द को सादर प्रणाम करता है।"
नन्द ने अपने समीपस्थ आसन पर बैठने का संकेत करते हुए स्थूलभद्र से कहा - "सौम्य स्थूलभद्र ! अपने पिता के स्वर्गगमन के कारण रिक्त हुए मगध के महामात्य पद को अब तुम स्वीकार करो।"
__ "महाराज मैं सोच-विचार के पश्चात् ही इस सम्बन्ध में निवेदन कर सकता हूं।" स्थूलभद्र ने यह छोटा-सा उत्तर दिया।
नन्द ने कहा - "स्थूलभद्र ! राजभवन के अशोकोद्यान में बैठकर तुम यहीं विचार करलो और शीघ्र मुझे उत्तर दो।"
"यथाज्ञापयति देव !" कह कर स्थूलभद्र ने महाराज नन्द को प्रणाम किया और वे अशोकोद्यान में एक वृक्ष के नीचे बैठकर अपने सम्मुख उपस्थित प्रश्न पर विचार करने लगे। यों तो स्थूलभद्र कोशा वेश्या के यहां रहकर शारीरिक वासनापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे थे पर उनका विवेकशील अन्तर्मन वस्तुतः पूर्णरूपेण जागरूक था। जिन परिस्थितियों में उनके पिता मगध के महामात्य शकटार की मृत्यु हुई, उन सब पर विचार करने के पश्चात् स्थूलभद्र के मन में एक विचित्र प्रकार का विचारमन्थन प्रारम्भ हो चुका था। स्थूलभद्र ने सोचा - "जिस राजसत्ता और राज-वैभव ने मेरे देवतुल्य पिता को अकारण ही अकालमृत्यु के गाल में ढकेल दिया, उस प्रभुत्व एवं सत्तासम्पन्न महामात्य पद कों पाकर वस्तुतः मैं सुखी नहीं हो सकता। मेरी भी एक न एक दिन वैसी ही दुर्गति हो सकती है। ऐसी संशयास्पद स्थिति में मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि मैं इस प्रकार की सम्पदा और सत्ता का वरण करू जो सदा के लिये मुझे सुखी बना कर मेरी चिरसंगिनी बनी रहे।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org