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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
[ वररुचि का पड्यन्त्र
जिस समय में नन्द के समक्ष प्ररणाम करते हुए अपना सिर झुकाऊं उस ही समय तुम बिना किसी प्रकार का सोच-विचार किये अपनी तलवार से मेरा शिर काट कर धड़ से पृथक् कर देना और राजा के प्रति पूर्ण स्वामिभक्ति प्रकट करते हुए कहना, "स्वामिद्रोही चाहे पिता ही क्यों न हो, उसका तत्काल वध कर डालना चाहिये । केवल इस उपाय से ही हमारे परिवार की रक्षा हो सकती है अन्यथा सर्वनाश समुपस्थित है ।"
श्रीक ने प्रांसू बहाते हुए प्रकम्पित स्वर में कहा- “तात ! जिस जघन्य कृत्य को करने के लिये आप आदेश दे रहे हैं वैसा कुकृत्य तो संभवतः कोई चाण्डाल भी नहीं करेगा ।"
शकटार ने श्रीयक को सान्त्वना देते हुए कहा - "प्रसन्नसंकट की घड़ियों में इस प्रकार के विचार मन में ला कर तो तुम शत्रुनों के मनोरथों की पूर्ति में सहायता ही करोगे । राजा को प्रणाम करते समय मैं अपने मुख में कालकूट विष रख लूंगा । ऐसी दशा में मेरा शिर काटने से तुम्हें पितृहत्या का दोष भी नहीं लगेगा | काल के समान विकराल राजा नन्द हमारे समस्त परिवार को मौत के घाट उतारे, उससे पहले ही तुम अपने वंश को विनाश से बचाने हेतु मेरा शिर काट डालो। तुम अब मेरी चिन्ता न करो, मैं तो अब जराजीर्ण होने के कारण कुछ ही समय में मृत्यु के मुख में जाने वाला था। बेटा ! चलो, मेरी आज्ञा का पालन कर अपने वंश की रक्षा करो ।"
श्रीयक को साथ लिये शकटार राजभवन में नन्द के समक्ष उपस्थित हुआ और उसे प्रणाम करने के लिये उसने शिर झुकाया । श्रीयक ने तत्काल खड्ग के प्रहार से शकटार का शिर काट डाला। यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना वीर निर्वारण सं० १४६ में घटित हुई ।
नन्द ने हड़बड़ा कर आश्चर्य भरे स्वर में कहा - "बेटा श्रीयक ! तुमने यह क्या कर डाला ? "
श्रीयक ने प्रति गम्भीर मुद्रा में कहा - "स्वामिन्! जब आपको यह विदित हो गया कि महामात्य स्वामिद्रोही हैं तो उस दशा में मैंने इनको मार कर सेवक के योग्य ही कार्य किया है । प्रत्येक सेवक का यह कर्त्तव्य है कि यदि स्वयं उसको किसी के द्वारा स्वामिद्रोह किये जाने की बात विदित हो तो उस पर कर्त्तव्याकर्त्तव्य का विचार करे किन्तु यदि उसके स्वामी को स्वयं को ही ज्ञात हो जाय कि अमुक व्यक्ति स्वामीद्रोही है, तो उस दशा में सेवक का यह कर्तव्य नहीं कि वह विचार करे अपितु उसका तो उस दशा में यह परम कर्तव्य हो जाता है कि तत्काल उस स्वामिद्रोही के अस्तित्व को ही मिटा दे ।"
नन्द अवाक् हो श्रीक की ओर देखता ही रह गया। उसने पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ अपने स्वर्गस्थ महामात्य का अन्तिम संस्कार सम्पन्न करवाया ।
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