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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [महामात्य पद - इस प्रकार के विचारमन्थन ने स्थूलभद्र को सासारिक वैभवों, प्रपंचों और बन्धनों से विरक्त बना दिया। वस्तुस्थिति के इस वास्तविक बोध ने स्थूलभद्र के जीवन की दशा ही बदल डाली। उन्होंने मन ही मन विचार किया – “महामात्य का पद निस्संदेह बड़ा उच्च पद है पर वह भी अन्ततोगत्वा है तो भृत्यकर्म, दासत्व और पारतन्त्र्य ही। पराधीन व्यक्ति स्वप्न तक में सुख की अनुभूति नहीं कर सकता। राजा, राज्य और राष्ट्र की चिन्ताओं से पूर्णरूपेण आच्छादित एक भृत्य के चित्त में स्वयं के सुख-दुःख के लिये सोचने का कोई अवकाश ही नहीं रह जाता। राजा और राज्य के हित में अपनी बौद्धिक एवं शारीरिक शक्ति का निश्शेष व्यय करने के पश्चात् भी भृत्य के लिये प्रत्येक पद पर सर्वस्वापहरण
और प्राणापहार तक का भय सदा बना रहता है। उस समस्त शक्तिव्यय का प्रतिफल शून्य के तुल्य है। कहा भी है :मुद्रेयं खलु पारवश्य जननी सौख्यच्छिदे देहिनां,
नित्यं कर्कशकर्मबन्धनकरी, धर्मान्तरायावहा । राजार्थेकपरैव संप्रति पुनः स्वार्थप्रजापिहृत्,
- तब्रूमः किमतः परं मतिमतां, लोकद्वयापायकृत् ।। अर्थात् - यह राजमुद्रा परवशता उत्पन्न करने वाली और मनुष्यों के सुख का विनाश करने वाली है। सदा कठोर कर्मबन्ध की कारण और धर्मसाधन में विघ्न रूप है। एक मात्र राजा के हित को ही दृष्टि में रखने वाली यह (प्रधानामात्य की) प्रभुता स्वयं के तथा प्रजा के हित का हरण करने वाली है। वस्तुतः इहलोक और परलोक - दोनों ही लोकों को बिगाड़ने वाली इससे (प्रधानामान्य की मुद्रा अथवा सत्ता से) बढ़कर संसार में और कौनसी वस्तु हो सकती है ?
. ऐसी दशा में बुद्धिमान् व्यक्ति का कर्तव्य हो जाता है कि वह केवल राजा के हित में अपनी शक्ति का अपव्यय न कर प्रात्मकल्याण के लिये शक्ति का सद्व्यय करे। ___इस प्रकार विचार करते-करते स्थूलभद्र शीघ्र ही एक निर्णय पर पहुँच गये। उन्होंने संसार के सम्पूर्ण प्रपंचों का परित्याग कर प्रात्मकल्याण करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। उन्होंने तत्क्षण पंचमुष्टि-लंचन कर अपने रत्नकंबल की फलियों का प्रोषा (रजोहरण) बनाकर साधु वेष धारण कर लिया। तदनन्तर वे साधु वेष में ही महाराज नन्द के सम्मुख राज्यसभा में उपस्थित हो बोले"राजन् ! मैंने बहुत सोच-विचार के पश्चात् यह निर्णय किया है कि मुझे भवप्रपंच वढ़ाने वाला महामात्यासन नहीं अपितु अपरोपतापी वैराग्यसाधक. दर्भासन चाहिए। मैं राग का नहीं किन्तु त्याग का उपासक बनना चाहता है।
यह कहकर प्रार्य स्थूलभद्र ने राज्यप्रासादों से बाहर की ओर प्रस्थान कर दिया। महाराज नन्द सहित समस्त राज्यपरिषद स्थूलभद्र द्वारा किये गये इस अप्रत्याशित निर्णय से स्तब्ध रह गई।
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