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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [रहस्योद्घाटन तिरस्कारपूर्ण दृष्टि से देख रहा है। उसे अपने प्राणापहरण से भी अत्यधिक दुस्सह पीड़ा का अनुभव हुआ।
महामात्य ने प्रणतिपूर्वक महाराज नन्द से निवेदन किया - "महाराज! यह वररुचि रात्रि के समय यहां आकर स्वर्णमुद्राओं की थैली गंगा के अन्दर लगाये गये यन्त्र में रख देता है और प्रातःकाल पर से उस यन्त्र को दबाकर उस थैली को प्राप्त कर जनसाधारण की आंखों में धूल झोंकता है।"
नन्द ने सस्मित आश्चर्य भरे स्वर में कहा - "महामात्य ! आपने इस छलछद्म को सर्वसाधारण पर प्रकट कर एक बहुत बड़ी भ्रान्ति का निराकरण कर दिया।'
तदनन्तर गंगातट पर एकत्रित समस्त जनसमूह अपने-अपने निवास स्थान को लौट गया। वररुचि अपने इस छलप्रपंच के प्रकट हो जाने से इतना अधिक लज्जित हुआ कि वह कई दिनों तक अपने निवास स्थान से बाहर तक नहीं निकला। अपने इस सार्वजनिक अपमान का कारण महामात्य शकटार को मानकर वररुचि अहर्निश इसका प्रतिशोध लेने हेतु शकटार के दास-दासी के माध्यम से शकटार के किसी छिद्र को ढूंढने के प्रयास में रहने लगा। एक दिन वररुचि को शकटार की एक दासी से यह सूचना मिली कि अपने पुत्र श्रीयक के विवाह के अवसर पर महामात्य शकटार महाराज नन्द को अपने निवास स्थान पर भोजनार्थ निमन्त्रित करने वाले हैं। उस समय महाराज नन्द को भेंट करने हेतु सुन्दरतम एवं बहुमूल्य छत्र-चंवरादि समस्त राज्यचिन्ह और आधुनिकतम विशिष्ट प्रकार के संहारक शस्त्रास्त्र मन्त्रीश्वर द्वारा निर्मित करवाये जा रहे हैं।
वररुचि का शकटार के विरुद्ध षड्यन्त्र शकटार से प्रतिशोध लेने हेतु वररुचि ने उपर्युक्त सूचना को अपने भावी षड्यन्त्र की उपयुक्त पृष्ठभूमि समझ कर निम्नलिखित श्लोक की रचना की :
न वेत्ति राजा यदसौ शकटालः करिष्यति । व्यापाद्य नन्दं तद्रराज्ये, श्रीयकं स्थापयिष्यति ।
अर्थात् - महामन्त्री शकटार जो कुछ करना चाहता है, उसे महाराज नन्द नहीं जानते । नन्द को मार कर शकटार अपने पुत्र श्रीयक को एक दिन मगध के राज्यसिंहासन पर बैठा देगा।
अभीप्ट कार्यसाधक श्लोक अनायास ही बन पड़ा है, यह देख कर उसे कार्यनिप्पत्ति का विश्वास हुआ। उसने पोगण्डावस्था के बहुत से बालकों को मिप्टान्नादि दे एकत्रित किया, उन्हें यह श्लोक कण्ठस्थ करवा कर और अधिक प्रलोभन देते हुए कहा कि वे लोग इस श्लोक को गलियों, वाजारों, चौहटों, क्रीड़ास्थलों एवं उद्यानों प्रादि में बारम्बार उच्च स्वर से बोलें।
__वररुचि का तीर ठीक निशाने पर लगा। पाटलिपुत्र के सभी सार्वजनिक स्थानों पर उस रहस्यपूर्ण श्लोक की ध्वनि गुंजरित होने लगी । चरों के माध्यम
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