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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [रहस्यपूर्ण चमत्कार है । वह श्वासोच्छवास को रोके अपलक दृष्टि से वररुचि की ओर देखने लगा। उसने देखा कि वररुचि गंगा के जल में घुस रहा है । वह गुप्तचर अपने स्थान से बड़ी सावधानी के साथ उठा और ध्यानपूर्वक वररुचि की ओर देखने लगा । उसे ऐसा लगा मानो वररुचि ने एक जगह पर पानी में अपने पैर से किसी वस्तु को टटोला है और फिर उसे अपने पैरों से दबा दिया है। अन्धेरा होने पर भी तारों की टिमटिमाहट में चमकते हुए गंगाजल में उसने देखा कि कोई वस्तु पानी से ऊपर उठी है और वररुचि ने अपनी बगल में से कुछ निकाल कर उसमें रख दिया है। इसके पश्चात् उसने देखा कि वररुचि शीघ्रतापूर्वक गंगा से बाहर निकला और पाटलीपुत्र नगर की ओर लौट गया।
___ वररुचि के लौट जाने के अनन्तर शकटार द्वारा नियुक्त गुप्तचर विभाग का वह अधिकारी गंगा के जल में ठीक उस ही जगह पहंचा जहां थोड़ी देर पहले वररुचि को उसने देखा था । पानी में उस अधिकारी ने अपने पैरों से टटोलना प्रारम्भ किया। कुछ ही क्षणों के प्रयास के पश्चात् पानी की निचली सतह में उसके पैर ने किसी कठोर वस्तु के स्पर्श का अनुभव किया। पर से अच्छी तरह टटोल कर उस गुप्तचर ने उस वस्तु पर पैर रखा और धीरे-धीरे उसे अपने पैर से दबाना प्रारम्भ किया। उसने देखा कि गंगाजल में से एक वस्तु ऊपर उठी और उसके पास पा कर रुक गई । उसने पानी की सतह में अपने पैर के नीचे की वस्तु को यथापूर्व दबाये ही रखा और अपना हाथ बढ़ा कर पानी से ऊपर उठी हाथ के आकार की वस्तु से लटकी हुई थैली को ले लिया। बायें हाथ से उस थैली को थामे उस गुप्तचर ने पानी से ऊपर उठी वस्तु को अपने दाहिने हाथ से अच्छी तरह टोल कर देखा। उसे विश्वास हो गया कि वह किसी कुशल शिल्पी द्वारा निर्मित काष्ठ का नारी-कर है । तत्काल सारा रहस्य उस गुप्तचर की समझ में आ गया कि वस्तुतः पानी में यंत्र रखा हुअा है, जिसको दबाने से काष्ठनिर्मित हाथ ऊपर उठ पाता है। उसने अपने दाहिने पैर को ऊपर उठाया। पैर के उठाते ही वह काष्ठनिर्मित हाथ पानी में चला गया।
___ अपने अनुमान को दृढ़ विश्वास में परिणत करने और अपने आपको आश्वस्त करने की दृष्टि से उस गुप्तचर ने पानी के अन्दर स्थित उस यन्त्र को बार-बार दबाकर देखा। जितनी बार उस यन्त्र को पैर से दबाया गया उतनी ही बार वह दारुमय हाथ पानी से ऊपर उठा पर अब वह रिक्त था, उसमें कोई थैली नहीं थी। पूर्णरूपेण प्राश्वस्त हो चुकने के पश्चात् वह गुप्तचर गंगा से बाहर निकला। उसने थैली को खोलकर उसमें रखी स्वर्णमुद्राओं को गिना और पाया कि वे संख्या में पूरी १०८ हैं। स्वर्णमुद्रामों को पुनः थेली में रखकर वह तत्काल नगर की ओर लोट पड़ा और महामात्य के गुप्त मंत्ररणाकक्ष में पहुंचकर उसने उन्हें प्रणाम किया।
महामात्य शकटार ने अन्तर्वेधो दृष्टि से उस अधिकारी की ओर देखते हुए कहा - "मा गये सौम्य ! मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था। तुम्हारी प्रसन्न
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