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जैन धर्म का मौलिक इतिहास- द्वितीय भाग [ वररुचि की प्रतिस्पर्धा
राज्यकोश से प्रतिदिन इतनी बड़ी धनराशि के व्यय को रोकना ग्रावश्यक गम महामन्त्री शकटार ने एक दिन नन्द से कहा - " राजन् ! प्रतिदिन १०८ मुद्राएं वररुचि को किस अभिप्राय से दी जा रही हैं ?
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अपने महामात्य के प्रति गहरी आस्था प्रकट करते हुए जिज्ञासा भरे स्वर में नन्द ने कहा "महामन्त्रिन् ! हम तो अपने महामात्य के इंगित के अनुसार हो वररुचि को प्रतिदिन १०८ स्वर्णमुद्राएं प्रदान कर रहे हैं। हम यदि स्वेच्छा से हो दते तो अपने प्रधानमन्त्री के मुख से काव्य को प्रशंसा सुनने से पहले ही दे देते ।"
शकटार ने गम्भीर स्वर में कहा - "एकराट् मगधेश्वर का महामात्य किसी अन्य कांव द्वारा कृत-काव्य का पाठ वररुचि के मुख से सुनकर कैसे प्रशंसा कर सकता है ? वस्तुतः मैंने उस दिन किसी अज्ञात कवि द्वारा निर्मित पदों के लालित्य को प्रशंसा को थो न कि वररुचि को । वह तो दूसरे कवियों को रचनाओं की हमारे समक्ष पढ़ता है। उसके द्वारा सुनाई गई काव्य रचना को यक्षा, यक्षदिन्ना दि आपको सातों बच्चियां सुना सकती हैं, कल प्रातःकाल ही इसको प्रत्यक्ष देख लिया जाय ।"
महाराज नन्द को इस पर बड़ा आश्चर्य हुआ। दूसरे दिन प्रातःकाल राज्यसभा में यवनिका के पीछे महामात्य शकटार की यक्षा आदि सातों पुत्रियों को वैठा दिया गया । वररुचि ने महाराज नन्द की प्रशंसा में अपने नवीनतम १०० श्लोक राज्य सभा में सुनाये ।
मंत्र-पुत्रियों को स्मरण शक्ति
वररुचि और समस्त राज्यसभा को आश्चर्य में डालते हुए महामात्य की बड़ी पुत्र यक्षा ने वररुचि द्वारा पढ़े गये १०८ श्लोकों को यथावत् सुना दिया । तदनन्तर यक्षदत्ता, भूता, भूतदत्ता, एला, वेरणा और रेखा ने भो एक-एक के पश्चात् अनुक्रम से खड़े होकर उन श्लोकों को राज्यसभा के समक्ष सुना दिया । वस्तुतः वे कन्याएं क्रमश: एक पाठी ( एक बार सुनने मात्र से बड़े से बड़े गद्य अथवा पद्य को कण्ठस्थ कर लेने वाली ), द्विपाठी, त्रिपाठी, चतुष्पाठी, पंचपाठी, षड्पाठी एवं सप्तपाठी थीं । समस्त राज्य परिषद स्तब्ध रह गई । सब के वक्र नेत्रों से वररुचि की प्रोर घृणा की वर्षा होने लगी । उसके पाण्डित्य की प्रतिष्ठा क्षण भर में ही धूलि में मिल गई । काव्यों की चोरी के कलंक का टीका अपने मस्तक पर लगा देख वररुचि हतप्रभ एवं लज्जित हो राज्यसभा से उठकर
चला गया ।
महामात्य की एक ही चाल से अपनी बड़े परिश्रम से अर्जित प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिली देख कर वररुचि के हृदय में शकटार के प्रति प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठी । उसने येन-केन प्रकारेण अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर
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