________________
३८४
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [जन्म माता-पिता ग्रार्य स्शुलभद्र इन्हीं गौतम गोत्रीय ब्राह्मण शकडाल के पुत्र थे । स्थूलभद्र की माता का नाम लक्ष्मीदेवी था।
___ मन्त्रीश्वर शक डाल अपने समय के मवोच्च कोटि के राजनीतिज्ञ, शिक्षा विशारद और कुशल प्रशासक थे। शकटार के महामात्य काल में मगधराज्य की उल्लेखनीय सीमावृद्धि के माथ-साथ राजस्व खाते में अभूतपूर्व अभिवृद्धि हुई । अनेक प्राचीन ग्रन्थों में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है कि नवम नन्द के कोश में इतनी वृद्धि हुई कि स्वर्ण की पहाड़ियां बना कर उसे अपने धन की रक्षा करने की स्थिति उत्पन्न हो गई।
शकटार के महामान्त्रत्वकाल में शिक्षा के क्षेत्र में अभ्यूनति हेतु अपार धनराशि व्यय की जाती रही। उन दिनों नालन्दा विश्वविद्यालय चरम उत्कर्ष पर पहुंच चुका था और उसकी ख्याति समुद्र के पारवर्ती देशों तक फैल गई थी।
इस प्रकार के विख्यात महामात्य के घर में स्थूलभद्र का जन्म हुमा। स्थूलभद्र के छोटे सहोदर का नाम श्रीयक था। यक्षा, यक्षदिना, भूता, भूतदिन्ना, सैरगा, मैरणा तथा रेणा नाम . को स्थूलभद्र और श्रीयक की सात बहिनें थीं। मन्त्रीश्वर शकटार ने अपने दोनों पुत्रों और सातों पुत्रियों की शिक्षा का समुचित प्रबन्ध किया और उन सबको सभी प्रकार की विद्याओं की उच्च कोटि की शिक्षा दिलवाई।
कोशा के यहां सकल विद्यानों में निष्णात होने के उपरान्त भी युवक स्थूलभद्र भोगमार्ग से नितान्त अनभिज्ञ रहे अतः संसार से विरक्त स्थूलभद्र को व्यावहारिक शिक्षा दिलाने एवं गृहस्थ जीवन की ओर आकृष्ट करने की दृष्टि से मन्त्रीश्वर शकटार ने उन्हें कोशा नाम की एक बड़ी चतुर वेश्या के यहां रखा, जो अपनी वाक्पटुता, अवसरज्ञता एवं अवसरानुकूल नैसर्गिक अभिनयकला के लिये विख्यात थी। कुछ ही दिनों के संसर्ग से शिक्षिका कोशा पौर शिक्षार्थी स्थूलभद्र एक दूसरे के गुरणों पर इतने अधिक मुग्ध हो गये कि क्षण भर के लिये भी एक दूसरे की दृष्टि से दूर रहना उन दोनों के लिये प्राणापहरण के समान असह्य हो गया। यह पारस्परिक आकर्षण अन्ततोगत्वा उस चरम सीमा तक पहुच गया कि बारह वर्ष पर्यन्त उन दोनों ने एक दूसरे में अत्यन्त अनुरक्त रहते हुए अपनी दासियों के अतिरिक्त किसी अन्य का मुख तक नहीं देखा।
संभवतः अपने इस कटु अनुभव से शिक्षा लेकर मन्त्रीश्वर ने अपने ज्येष्ठ पुत्र की तरह कनिष्ठ पुत्र को शिक्षण प्राप्त कर लेने पर किसी वेश्या के यहां व्यावहारिक शिक्षा दिलाना आवश्यक नहीं समझा। अतः श्रीयक अपने पिता के साथ नवम नन्द के राज-दरबार में जाने और राज्यकार्य में अपने पिता की सहायता करने लगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org