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दशपूर्वधर-काल
अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर प्राचार्य भद्रबाह के स्वर्गगमन के साथ ही वीर नि० सं० १७० में श्रुतकेवलिकाल की समाप्ति और दशपूर्वधरों के काल का प्रारम्भ होता है। श्वेताम्बर परम्परा वीर नि० सं० १७० से ५८४ तक कुल मिला कर ४१४ वर्ष का और दिगम्बर परम्परा वी० नि० सं० १९२ से ३४५ तक कृल १८३ वर्ष का दशपूर्वधरकाल मानती है ।
८. प्रार्य स्थूलभद्र अन्तिम तकेवली प्राचार्य भद्रबाहु के पश्चात् भगवान् महावीर के आठवें पट्टधर प्राचार्य प्राय स्थूलभद्र हुए। कामविजयी प्रार्य स्थूलभद्र की गणना उन विरले नरपंगवों में सर्वप्रथम की जा सकती है जिनका उल्लेख भर्तृहरि ने निम्नलिखित पंक्तियों के माध्यम से किया है :मत्तेभकुंभदलने भुवि सन्ति शूराः,
कैचित्प्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः । किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य,
___ कन्दर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः ।। आर्य स्थूलभद्र द्वारा काम पर प्राप्त की गई अद्भुत विजय से उत्प्रेरित हो अनेक कवियों ने इनके जीवनचरित्र पर अनेक भाषाओं में अनेक काव्य लिखे हैं। शृंगार और वैराग्य दोनों ही की पराकाष्ठा का अपूर्व एवं अद्भुत समन्वय प्रार्य स्थूलभद्र के जीवन में पाया जाता है। कज्जल से भरी कोटरी में रह कर भी कोई व्यक्ति अपने शरीर पर किंचित् मात्र भी कालिख न लगने दे, यह असंभव है। परन्तु आर्य स्थूलभद्र ने निरन्तर चार मास तक अपने समय की सर्वाधिक सुन्दरी कामिनी कोशा वेश्या के गृह में रहते हुए भी पूर्ण निष्काम रह कर इस असंभव को संभव कर बताया।
जन्म, माता-पिता. प्राचार्य स्थूलभद्र का जन्म वीर निर्वाण सं० ११६ में एक ऐसे संस्कारसम्पन्न ब्राह्मण परिवार में हुप्रा जो जैन धर्म पर दृढ़ आस्था रखने वाला और राजमान्य था। मगधसम्राट उदायी की मृत्यु के पश्चात् इस परिवार का पूर्व पुरुष कल्पक प्रथम नन्द द्वारा मगध साम्राज्य का महामात्य नियुक्त किया गया। तब ही से अर्थात् प्रथम नन्द के समय से नवम नन्द के समय तक निरन्तर - इसी ब्राह्मण परिवार का मुखिया मगध के महामात्य पद को सुशोभित करता रहा। नवम नन्द के महामात्य का नाम शकटार अथवा शकडाल था।
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