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जैन धर्म का मौलिक इतिहास- द्वितीय भाग
[ नियुक्तिकार कौन चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु और दूसरे नैमित्तिक भद्रबाहु । नैमित्तिक भद्रबाहु के सम्बन्ध में निम्नलिखित जनप्रिय गाथा प्रसिद्ध है
पावयरणी १ धम्मकही २ वाई ३, मित्तिश्रो ४ तवस्सी ५ य । विज्जा ६ सिद्धो ७ य कई ८ अठेव पभावगा भरिया || १ || प्रज्जरक्ख ९ नन्दिसेरगो २ सिरिगुत्त विषेय ३ भद्दबाहु ४ य । खवग - ५ ज्जखवुड ६ समिया ७ दिवायरो ८ वा इहाहररणा ||२|| आठ प्रभावकों में नैमित्तिक भद्रबाहु को चौथा प्रभावक माना गया है । जैसा कि पहले बताया जा चुका है - श्वेताम्बर परम्परा में काफी प्राचीन समय से यह मान्यता सर्वसम्मतरूपेण प्रसिद्ध है कि दशाश्रुतस्कन्ध कल्पसूत्र व्यवहारसूत्र और निशीथ सूत्र – ये चार छेदसूत्र आवश्यक नियुक्ति आदि १० नियुक्तियां 'उवसग्गहरस्तोत्र' और 'भद्रवाहु संहिता' ये १६ ग्रन्थ भद्रबाहु स्वामी की कृतियां हैं । इन १६ कृतियों में से ४ छेदसूत्र श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वारा निर्मित हैं, यह प्रमाणपुरस्सर सिद्ध किया जा चुका है। ऐसी स्थिति में अनुमानतः शेष १२ कृत्तियां नैमित्तिक भद्रबाहु की हो सकती हैं क्योंकि इन दो भद्रबाहु के अतिरिक्त अन्य तीसरे भद्रबाहु के होने का श्वेताम्बर वाङ् मय में कहीं कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । इस अनुमान को पुष्ट करने वाला प्रमाण भी उपलब्ध है । वह यह है कि चौदहवीं शताब्दी की नोंध - पुस्तिका में उपसर्गहरस्तोत्रकार एवं ज्योतिर्विद् भद्रबाहु की कथा उट्ठकित है । इसके साथ ही साथ जैसा कि भद्रबाहु के परिचय में पहले बताया जा चुका है - श्वेताम्बर परम्परा के अनेक प्राचीन ग्रन्थों में भद्रबाहु और वराहमिहिर को सहोदर मानकर उनका विस्तृत परिचय संयुक्त रूप से दिया गया है । ऐसी दशा में वराहमिहिर का समय निश्चित हो जाने पर भद्रबाहु का समय भी स्वतः ही निश्चित हो जाता है ।
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वराहमिहिर ने अपने "पंचसिद्धान्तिका" नामक ग्रन्थ के अन्त में निम्नलिखित श्लोक से ग्रन्थ रचना का समय शक सं० ४२७ दिया है :सप्ताश्विवेदसंख्यं, शककालमपास्य चैत्र शुक्लादौ ।
अर्धास्तमिते भानो, यवनपुरे सौम्य - दिवसाद्ये ||
इस श्लोक के आधार पर वराहमिहिर के साथ-साथ नैमित्तिक प्राचार्य भद्रबाहु का समय भी शक सं० ४२७, तदनुसार वि० सं० ५६२ और वीर निर्वाण संवत् १०३२ के आसपास का निश्चित हो जाता है । यह पहले ही बताया जा चुका है कि बारह वर्ष तक श्रमरणपर्याय की पालना के पश्चात् वराहमिहिर अपने बड़े भाई भद्रबाहु से विद्वेष रखने लगा । दोनों भाइयों की इस प्रतिस्पर्धा के परिरणामस्वरूप वराहमिहिर ने वाराही संहिता की और भद्रबाहु ने भद्रबाहु संहिता' की रचना की इस प्रकार की श्वेताम्बर परम्परा की आम मान्यता अधिक तर्कसंगत और युक्तिसंगत प्रतीत होती है ।
" वर्तमान में उपलब्ध भद्रबाहुसंहिता को विद्वानों ने भद्रबाहु की कृत्ति नहीं माना है । वस्तुतः भद्रबाहुसंहिता अभी प्रकाशित नहीं हुई है ।
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