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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [छेद० श्रुत० भद्रबाहु ११. वर्तमान में उपलब्ध नियुक्तियां श्रुतकेवली भद्रबाह की कृतियां नहीं, इस पक्ष की पुष्टि करने वाला एक और प्रबल प्रमाण है स्वयं-इन नियुक्तियों का वर्तमान प्राकार-प्रकार । आवश्यक नियुक्ति में जिन-जिन सूत्रों पर नियुक्तियों की रचनाएं करने का उल्लेख किया गया है, वह इस प्रकार है -
मायारस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे । सूयगडे निज्जुत्ति, वोच्छामि तहा दसाणं च ।।१४।। कप्पस्स य णिज्जुत्ति, ववहारस्सेस परमनिउणस्स ।
सूरियपण्णत्तीए, वुच्छं इसिभासियारणं च ।।५।।
इन दश सूत्रों में से आचारांग और सूत्रकृतांग ये दोनों पागम प्राचार्य भद्रबाहु के समय में सर्वसम्मत मान्यतानुसार प्रति वृहदाकार एवं परिपूर्ण रूप में विद्यमान थे और प्रत्येक सूत्र पर चार-चार अनयोग प्रवृत्त थे। ऐसी स्थिति में यदि श्रुतकेवली भद्रबाह स्वामी द्वारा इन पर नियुक्तियों की रचना की गई होती तो वे उनके अनुरूप ही चार-चार अनुयोगों से युक्त अति विस्तीर्ण एवं प्रति विशाल प्राकार वाली होतीं। पर वस्तुस्थिति उससे नितान्त भिन्न दृष्टिगोचर होती है। प्राज के इनके अन्तरंग और बहिरंग स्वरूप को देखने से यही मानना उचित प्रतीत होता है कि माधुरी आदि विभिन्न वाचनाओं द्वारा अंतिमरूपेण सुसंस्कृत एवं संकलित आगम जिस रूप में आज हमारे समक्ष हैं, उन्हीं को आधार मानकर इनके अनुरूप नियुक्तियों की रचनाएं उपर्युक्त वाचनाओं के पश्चात् की गई हैं।
इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि आर्य रक्षित ने अपने विद्वान् शिष्य दुर्बलिका पुष्यमित्र की विस्मृति और भावी शिष्य-प्रशिष्यों की क्रमशः मन्द से मन्दतर बुद्धि को ध्यान में रखते हुए जिस समय अनुयोगों को पृथक् किया उसी समय चार अनुयोगमय नियुक्तियों को अनयोग से पृथक कर व्यवस्थित कर लिया गया था। पर इस सम्बन्ध में वस्तुस्थिति पर सम्यगरूपेण विचार करने पर स्वतः ही इस कथन की अवास्तविकता और अनौचित्यता प्रकट हो जायगी। इस कथन की अवास्तविकता को प्रकट करने वाला प्रथम तथ्य तो यह है कि जिस प्रकार आगमों की विविध वाचनानों के सम्बन्ध में अनेक उल्लेख उपलब्ध होते हैं, उस प्रकार का एक भी उल्लेख नियुक्तियों को व्यवस्थित करने के सम्बन्ध में नहीं मिलता।
इसके अतिरिक्त दूसरा सबल तथ्य यह है कि प्राचारांग और सुत्रकृतांग का जो पूर्ण स्वरूप चतुर्दश पूर्ववर प्राचार्य भद्रबाह के समय में था, ठीक उसी प्रकार का इनका स्वरूप प्रार्य रक्षित के समय में भी था । ऐसी स्थिति में प्रार्य रक्षित द्वारा अनुयोगों के पृयककरण के समय ही इन दो सूत्रों को नियुक्तियों की इनके अनुयोगमय स्वरूप से पृयक कर व्यवस्था की जाती तो इन दोनों सूत्रों की वहदाकारता और विशालता के अनुरूप ही इन दोनों सूत्रों की नियुक्तियों का प्राकार एवं विस्तार भी वृहत् तथा विशाल होना चाहिये था और इन सूत्रों के जो बहुत
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