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नियुक्तिकार कौन ]
श्रुतकेवली - काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु
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गोत्रीय भद्रबाहु को तथा वराहमिहिर के भ्राता भद्रबाहु को एक ही महापुरुष मानने की भ्रान्त धारणा प्रचलित हो गई हो ।
वस्तुतः 'तित्थोगालिय पन्ना', 'आवश्यकचूरिंग', आवश्यक हारिभद्रीया टीका और परिशिष्टपर्व आदि प्राचीन एवं प्रामाणिक ग्रन्थों में श्रुतकेवली भद्रबाहु के जीवन का जो थोड़ा बहुत परिचय उपलब्ध होता है, उनमें द्वादशवार्षिक दुष्काल, भद्रबाहु द्वारा छेदसूत्रों की रचना, उनके नेपालगमन, महाप्राणध्यान को साधना और श्रार्य स्थूलभद्र को पूर्वो की वाचना देना आदि घटनात्रों का विवरण दिया गया है । इन ग्रन्थों में इनके वराहमिहिर का सहोदर होने, निर्युक्तियों, उपसर्गहस्तोत्र तथा भद्रबाहु संहिता की रचना करने का कहीं किंचितमात्र भी उल्लेख नहीं किया गया है ।
एक महत्वपूर्ण तथ्य
उपरोक्त उल्लेखों से यह जो प्रमाणित किया गया है कि वर्तमान में उपलब्ध श्रावश्यक निर्युक्ति आदि निर्युक्तियों के रचयिता नैमित्तिक भद्रबाहु हैं, इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि नियुक्तियों के सर्वप्रथम कर्ता नैमित्तिक भद्रबाहु ही हैं । समवायांगसूत्र, स्थानांग सूत्र श्रौर नन्दीसूत्र में जहां द्वादशांगी का परिचय दिया गया है, वहाँ प्रायः प्रत्येक सूत्र के सम्बन्ध में "संखेज्जाश्रो निज्जुतीप्रो” इस प्रकार का उल्लेख है। मूल आगमों में इस प्रकार के उल्लेख से यह प्रकट होता है कि नियुक्तियों की परम्परा प्रागमकाल से ही प्रचलित रही है । "संखेज्जाश्रो निज्जुत्तीम्रो" - ग्रागम के इस पाठ पर ध्यानपूर्वक विचार करने से प्रतीत होता है कि प्रत्येक आचार्य, प्रत्येक उपाध्याय अपने शिष्यों को श्रागमों की वाचना देते समय अपने शिष्यों के हृत्पटल पर आगमों के अर्थ को सदा के लिये अंकित कर देने के अभिप्राय से अपने-अपने समय में अपने-अपने ढंग से निर्युक्तियों की रचना करते रहे हों । वस्तुतः प्राज की शिक्षा प्रणाली में व्याख्याता प्राध्यापकों द्वारा अपने छात्रों को "नोट्स" लिखाने की परम्परा प्रचलित है, उसी प्रकार आज की इस परम्परा से और अधिक परिष्कृत रूप में शिक्षार्थी श्रमणों के हित को दृष्टि में रखते हुए प्राचार्यों द्वारा निर्युक्तियों की रचनाएं परम्परा से की जाती रहीं हैं ।
निशीथ चूरिण, कल्पचूरिण यादि में प्रार्य गोविन्द की निर्युक्ति का उल्लेख उपलब्ध होता है । ये प्रार्य गोविन्द युगप्रधान पट्टावली के अनुसार २८ वें युगप्रधान थे। इनका समय विक्रम की पांचवीं शताब्दी के अंतिम चरण से छठी शताब्दी के प्रथम चरण के बीच का बैठता है । अतः ये नियुक्तिकार भद्रबाहु से पूर्व के हैं ।
प्रत्येक सूत्र के साथ "संखेज्जाम्रो निज्जुत्तीम्रो" यह पाठ देख कर यह भी संभव प्रतीत होता है कि समय-समय पर प्रायः सभी प्राचार्यों द्वारा निर्युक्तियों की रचनाएं की गई । उन निर्युक्तियों की अनेक उत्तम एवं लोकप्रिय गाथाएं भद्रबाहु
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