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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
[ नियुक्तिकार कौन
प्रमारण है कि नियुक्तिकार अष्टांग निमित्त तथा मंत्र-विद्या के पारंगत विद्वान् थे । आध्यात्मिक साधना पर इस प्रकार की मंत्र-विद्या की छाप वस्तुतः निर्युक्तिकार के अतिशय निमित्त प्रेम का ही द्योतक है ।
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ज्योतिष विद्या के मान्य शास्त्र " सूर्य प्रज्ञप्ति " पर भी भद्रबाहु ने निर्युक्ति की रचना की । यह भी इस तथ्य को प्रकट करता है कि वे एक महान् नैमित्तिक थे और ज्योतिष शास्त्र के प्रति उनके प्रगाध प्रेम एवं प्रगाध ज्ञान ने ही उन्हें इस ज्योतिष शास्त्र के भण्डार "सूर्यप्रज्ञप्ति" शास्त्र पर नियुक्ति की रचना करने को प्रेरित किया ।
वर्तमान में उपलब्ध नियुक्तियों के कर्त्ता प्राचार्यं भद्रबाहु एक महान् नैमित्तिक थे, इस बात का एक और प्रबल प्रमारण यह है कि श्राचारांग जैसे चरणकररणानुयोग के तात्विक शास्त्र पर नियुक्ति की रचना करते समय भी निमित्त शास्त्र के प्रति उनका अगाध प्रेम-पयोधि उद्वेलित हो उठा है और वे तात्विक निर्देश के समय भी निम्नलिखित गाथा में निमित्त का वर्णन कर देते हैं :
:
जत्थ य जो पण्णवप्रो, कस्स वि साहइ दिसासु यणिमित्तं । जत्तो मुहो य ठाई, सा पुव्वा पच्छन अवरा ॥ ५१ ॥
अर्थात् जो व्याख्याता जिस जगह पर जिस ओर मुंह किये हुए किसी को निमित्त का निरूपण करता है, उस स्थिति में जिस प्रोर उसका मुँह है वह पूर्व दिशा और जिस ओर उसकी पीठ है वह पश्चिम दिशा समझनी चाहिये !
दशाश्रुतस्कन्ध-निर्युक्ति की मंगलगाथा “वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिमसगलसुयनारिण" में प्रयुक्त 'पाईरणं' प्राचीनं शब्द हमें यह सोचने के लिये अवसर प्रदान करता है कि भद्रबाहु नामक निमित्तशास्त्र के विद्वान् महापुरुष ने नियुक्ति की रचना करते समय दशाश्रुतस्कन्धकार चतुर्दश पूर्वघर श्रा० भद्रबाहु को प्रपने से प्राचीन मानकर वन्दन किया है । हो सकता है कि प्राचीनता के बोधक इस "पाई" शब्द का आगे चल कर प्राचीन गोत्रीय ऐसा अर्थ कर लिया गया हो । इस प्रकार का विचार करने के लिये इस कारण अवसर मिलता है कि प्राचीन ग्रन्थ तित्थोगालिय पन्ना में श्रुतकेवली भद्रबाहु के नाम के साथ "पाई" विशेषरण किसी भी स्थान पर नहीं लगाया गया है ।
इस अनुमान से भी वीर नि० संवत् १०३२ के आसपास होने वाले नैमित्तिक भद्रबाहु ही नियुक्तियों के रचनाकार हैं, इस प्रकार के विश्वास को बल मिलता है ।
इन सब प्रमाणों से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है कि वीर निर्वाण सं० १०३२ के लगभग होने वाले नैमित्तिक भद्रबाहु, जो कि वराहमिहिर के भाई थे, उन्होंने ही ग्रावश्यक आदि दश निर्युक्तियों, उपसर्गहरस्तोत्र और भद्रबाहुसंहिता की रचनाएं कीं। यह संभव है कि आचार्य हेमचन्द्रसूरि के पश्चाद्वर्ती किसी काल में नाम साम्य के कारण चतुर्दश पूर्वधर, प्राचीन अथवा प्राचीन
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