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नियुक्तिकार कौन] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु
३७३ इन सब बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि वीर निर्वाण सं० १५६ से १७० तक आचार्यपद पर रहने वाले श्रुतकेवली भद्रबाहु और वीर नि० सं० १०३२ के आसपास होने वाले महान् प्रभावक नैमित्तिक भद्रबाहु की जीवनियों को कालान्तर में एक दूसरे के साथ जोड़ कर प्रथम भद्रबाहु को ही स्मृतिपटल पर अंकित रखा गया और द्वितीय भद्रबाहु को एक दम भूला दिया गया। दो प्राचार्यों के जीवन-परिचय के इस सम्मिश्रण के फलस्वरूप इस भ्रान्त धारणा ने जन्म लिया कि चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाह ही नियुक्तिकार, उपसर्गहरस्तोत्रकार और भद्रबाहुसंहिताकार थे । इस प्रकार के भ्रम का निराकरण हो जाने के पश्चात् स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु छेदसूत्रकार थे और नैमित्तिक भद्रबाहु द्वितीय, नियुक्तियों, उपसर्गहरस्तोत्र और भद्रबाहुसंहिता के रचयिता थे ।
नियुक्तियों के रचनाकार वस्तुतः ज्योतिष विद्या के प्रेमी और नैमित्तिक थे इस तथ्य की पुष्टि करने वाले अनेक प्रमाण नियुक्तियों में उपलब्ध होते हैं। उनमें से कुछ प्रमाण यहां दिये जा रहे हैं :
१. आवश्यक नियुक्ति में गन्धर्व नागदत्त का कथानक दिया हुअा है । उसमें १२५२ से १२७० तक की गाथानों के मननपूर्वक अध्ययन से यह स्पष्टतः प्रतीत होता है कि प्रावश्यक नियुक्तिकार अष्टांगनिमित्त और मंत्रविद्या के एक चोटी के विद्वान थे । गन्धर्व नागदत्त के उक्त कथानक में निर्यक्तिकार का नैमित्तिक ज्ञान सहजरूप से स्वतः ही परिस्फुटित हो गया है और उन्होंने नाग के विष को उतारने के व्याज से काम, क्रोध, मद, मोह आदि नागों से उसे हुए प्राणियों के विष को उतारने की प्रक्रिया का उल्लेख किया है ।' "उपसर्गहर स्तोत्र" में प्रयुक्त 'विसहर फुलिंगमंतं', इस पद का प्रावश्यक नियुक्ति में वर्णित विषनिवारक प्रक्रिया से तालमेल भी यह मानने के लिये बाध्य करता है कि ये दोनों कृतियां एक ही महापुरुष की हैं।
प्रावश्यक नियुक्ति की गाथा १२७० में सामान्यतया मन्त्रतन्त्रादि क्रियानों में सर्वत्र प्रयुक्त किये जाने वाले रूढ़ शब्द "स्वाहा” का प्रयोग भी इस बात का ' गन्धब नागदत्तो, इच्छइ सप्पेहि खिल्सिउं इहयं । तं जइ कहं चि खज्जइ, इत्य हु दोसो न कायन्यो ।।१२५२।। एए ते पावाही, चत्तारि वि कोहमाणमयलोभा । जेहि सया संसत्तं, जरियमिव जयं कलकलेइ ।।१२६२।। एएहि मह खइयो, चउहि वि मासीदिसेहि पावेहि । विसनिग्घायण हेळं, चरामि विविहं तवोकम्मं ।।१२६४।। सिवे नमंसिऊणं, संसारत्या य जे महाविज्जा । वोच्छामि दण्डकिरियं, सव्वविसनिवारण विज्ज ।।१२६६।। सव्वं पाणाइवाय, पच्चक्खाई मि पलियवयणं च । सब्वमद तादाणं, प्रबंभ परिग्गहं स्वाहा ।।१२७०।। [मावश्यक नियुक्ति]
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