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उत्कट चारित्रनिष्ठा] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु नगर के बहिमार्ग में ध्यानस्थ मुनि रात्रि के चतुर्थ प्रहर में शरीर त्याग कर देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हुए।
___ साधना-पथ के पथिक श्रमणों के हृदय में उस समय श्रमणाचार के प्रति कितनी प्रगाढ़ निष्ठा और शरीर के प्रति कितनी निर्ममत्व भावना थी, इसका अनुमान भद्रबाह के इन चार शिष्यों की अंतिम चर्या से सहज ही लगाया जा सकता है।
भद्रबाहु विषयक श्वेताम्बर मान्यतामों का निष्कर्ष तित्थोगालियपइन्ना, अावश्यक चूणि, आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति और प्रा० हेमचन्द्र का परिशिष्ट पर्व - इन श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में अन्तिम श्रतकेवली प्राचार्य भद्रबाह के सम्बन्ध में केवल इतना ही परिचय उपलब्ध होता है कि वे अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर थे, उनके समय में द्वादश वार्षिक दुष्काल पड़ा, वे लगभग १२ वर्ष तक नेपाल प्रदेश में रहे, वहाँ उन्होंने बारह वर्ष तक योगारूढ़ रहकर महाप्रारण ध्यान की साधना की, उनके समय में पर उनकी अनुपस्थिति में प्रागमों की वाचना वीर नि० सं० १६० के आसपास पाटलिपुत्र नगर में हई, उन्होंने आर्य स्थूलभद्र को दो वस्तु कम १० पूर्वो का सार्थ और शेष पूर्वो का केवल मूल वाचन दिया, उन्होंने ४ छेदसूत्रों की रचना की और जिनशासन का महान उद्योत कर वे वी० नि० सं० १७० में स्वर्ग पधारे ।
उपरोक्त चार ग्रन्थों के पश्चाद्वर्ती काल में बने श्वेताम्बर परम्परा के कतिपय ग्रन्थों में श्रतकेवली भद्रबाह के जीवनचरित्र के साथ वीर नि० सं० १०३२ के आसपास हुए नैमित्तिक भद्रबाह के जीवन की घटनाओं को जोड़कर जो उन्हें वराहमिहिर का सहोदर बताया गया है, उस सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक स्पष्टीकरण कर दिया गया है। उसे यहां दोहराने की आवश्यकता नहीं ।
। ऐसी स्थिति में श्रुतकेवली भद्रबाहु के जीवन का जो परिचय तित्थोगाली पइन्ना आदि उपरोक्त चार ग्रन्थों में दिया गया है वही वास्तव में प्रामाणिक है। अन्य ग्रन्थों में उपरोक्त तथ्यों के अतिरिक्त जिन घटनाओं को श्रुतकेवली भद्रबाहु के जीवन के साथ जोड़ा गया है उन्हें वी० नि० सं० १०३२ के आसपास हुए नैमित्तिक भद्रबाह के जीवन से सम्बन्धित समझना चाहिए।
श्रुतकेवलिकाल को राजनैतिक एवं अन्य प्रमुख
ऐतिहासिक घटनाएं प्रमुख राजवंश :- यह पहले बताया जा चुका है कि वीर नि० सं० ६० में शिशुनागवंशी राजा उदायी के पश्चात् नन्दिवर्धन पाटलिपुत्र के राजसिंहासन पर प्रारूढ़ हया । नन्दिवर्धन से लेकर अन्तिम नंद धननंद तक पाटलिपुत्र के राजारों को जैन एवं जैनेतर साहित्य में नव नन्दों के नाम से अभिहित किया गया है ।
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