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छेदसूत्रकार श्रुत० भद्रबाहु ] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु
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कालिकसूत्र और ओघ – इन दोनों का समावेश चरणंकररणानुयोग में किया गया है । अनुयोगों के रूप में सूत्रों का पृथक्करण वीर नि० सं० ५६० से ५६७ के बीच के समय में, तदनुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् ४२० से ४२७ वर्ष के मध्यवर्तीकाल में प्रार्य रक्षित द्वारा किया गया है ।
१०. श्रुतकेवली भद्रबाहु निर्युक्तिकार नहीं, इस पक्ष की पुष्टि में दशाश्रुतस्कन्ध-निर्युक्ति की एक और गाथा प्रमाण रूप से प्रस्तुत की जाती है :
एगभविए य बढाउए य, श्रभिमुहियनामगोए य ।
एते तिन्नि वि देसा, दव्वम्मि य पोंडरीयस्स || १४६ ||
इस गाथा में द्रव्य निक्षेप के तीन प्रदेशों का विवेचन किया गया है। इसकी वृत्ति इस प्रकार है :
एगेत्यादि एकेन भवेन गतेन श्रनन्तरभव एक यः पौण्डरीकेषु उत्पत्स्यते स - एकभविकः । तथा तदासन्नतरः पौण्डरीकेषु बद्धायुष्कः ततोऽप्यासन्नतमः ।
अभिमुखनामगोत्र: 'अनन्तर समयेषु यः पौण्डरीकेषु उत्पद्यते । एते प्रनन्तरोक्ता त्रयोप्यादेशविशेषा द्रव्यपोण्डरीकेऽवगन्तव्या इति ।
[ सूत्रकृतांगनिर्युक्ति, श्रुत० २, अध्ययन १, पत्र २६७-६८ ]
वृहत्कल्पसूत्र के चूरिंगकार के कथनानुसार ये तीनों ही स्थविर श्रार्य -मंगू, स्थविर आर्य समुद्र और स्थविर प्रार्य सुहस्ती की पृथक्-पृथक् तीन मान्यताएं हैं । इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है कल्पभाष्य की हस्तलिखित प्रति की अधोलिखित गाथा और उसकी चूरिंग :
गरणहरथेरकयं वा, आएसा मुक्कवागररणतो वा ।
ध्रुवचल विसेसतो वा, अंगाऽगंगेसु णाणत्त ॥ १४४ ।।
चूरिण: - किं च प्राएसा जहा अज्ज मंगू तिविहं संखं इच्छति - एगभवियं, बद्धाउयं, अभिमुह्नामगोत्त च । ग्रज्ज समुद्दा दुविहं बद्धाउयं श्रभिमुहनामगोत्तं च । श्रज्ज सुहत्थी एगं- अभिमुहनामगोयं इच्छति ।
[ स्व० मुनि श्री पुण्यविजयजी, वृहत्कल्पसूत्र नी प्रस्तावना, पृष्ठ १३ ]
इस प्रकार चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु के बहुत पश्चात् हुए प्रार्य मंगू, आर्य समुद्र और प्रायं सुहस्ती की मान्यताओं का आकलन एवं उल्लेख जिस निर्युक्त में हो, उसे किसी भी स्थिति में श्रुतकेवली भद्रबाहु की कृति नहीं माना जा सकता । निर्युक्तिकार भद्रबाहु और चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु के एक होने न होने का विवादास्पद प्रश्न कल्पभाष्य के चूर्णिकार के समक्ष कभी रहा हो, इस प्रकार का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता, अतः चूरिंणकार के इस कथन की निष्पक्ष अभिमत के रूप में गणना की जाकर प्रामाणिक और सत्य मानने में किसी प्रकार की शंका के लिये कोई अवकाश नहीं रहता ।
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