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वेदसूत्रकार श्रुत० भद्रबाहु] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु
३६७ गाथा की 'टीका में यह युक्ति दी है - "प्राचार्य भद्रबाहु चतुर्दशपूर्वधर अर्थात् श्रुतकेवली थे प्रतः वे त्रिकाल के पदार्थों को जानने में समर्थ थे ऐसी दशा में नियुक्तियों के अन्तर्गत अर्वाचीन घटनाओं एवं प्राचार्यों के विवरण देख कर इस प्रकार की कतई शंका नहीं करनी चाहिये कि नियुक्तियों के कर्ता चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु के अतिरिक्त अन्य कोई प्राचार्य हैं।' पर इस गाथा की टीका करते समय उन्हें अपने स्वयं के अन्तर से कितना जझना पड़ा इसकी झलक टीका में स्पष्टतः प्रकट होती है :___"सम्प्रत्यतिगम्भीरतामागमस्य दर्शयन्नात्मौद्धत्यपरिहारायाह भगवान् नियुक्तिकार :
सव्वे एए दारा गाथा व्याख्या - 'सर्वारिण' अशेषाणि 'एतानि' अनन्तरमुपदर्शितानि 'द्वारारिण', अर्थप्रतिपादनमुखानि 'मरणविभक्तेः' मरणविभक्त - यपरनाम्नोऽस्यैवाध्ययनस्य 'वणितानि' प्ररूपितानि, मयेति शेषः, 'कमसो' ति प्राग्वत् क्रमशः । आह एवं सकलापि मरणवक्तव्यता उक्ता उत न ? इत्याहसकलाश्च- समस्ता निपुणाश्च-अशेषविशेष-कलिताः सकलनिपुणाः तान् पदार्थान् इह मरणप्रशस्तादीन जिनाश्च केवलिनः चतुर्दशविणश्च-प्रभवादयो जिनचतुर्दशपूर्विणो 'भाषन्ते' व्यक्तमभिदधति, अहं तु मन्दमतित्वान्न तथा वर्णयितुं क्षम इत्यभिप्रायः । स्वयं चतुर्दशपूर्वित्वेऽपि यच्चतुर्दशपूर्युपादानं तत् तेषामपि षट्स्थानपतितत्वेन शेषमाहात्म्यख्यापनपरमदुष्टमेव, भाष्यगाथा वा द्वारगाथाद्वयादारभ्य लक्ष्यन्त इति प्रेर्यानवकाश एवेति गाथार्थः ।।२३३॥
[उत्तराध्ययन पाइय टीका, पत्र २४०] नियुक्तिकार ने इस गाथा में यह कह कर कि - यद्यपि उन्होंने मरण-विभक्ति विषयक सभी द्वारों का अनुक्रम से वर्णन करने का प्रयास किया है, तथापि इनका सम्पूर्णरूपेण विशदवर्णन तो केवली या चतुर्दश पूर्वधर ही कर सकते हैं- यह स्पष्टतः स्वीकार किया है कि न तो वे केवली हैं और न चतुर्दश पूर्वधर हो।
____ शान्त्याचार्य ने नियुक्तिकार की इस सरल और स्पष्ट स्वीकारोक्ति की अपने पक्ष के साथ संगति बैठाने हेतु क्लिष्ट कल्पना करते हुए टीका में दो युक्तियां दी हैं। पहली यूक्ति यह कि नियुक्तिकार ने स्वयं चतुर्दश पूर्वधर होते हुए भी अर्थज्ञान की अपेक्षा से चतुर्दश पूर्वधर भी परस्पर एक दूसरे से न्यूनाधिक समझने वाले होते हैं, इस दृष्टि से अपने से पूर्व के पूर्वधरों को अपनी अपेक्षा अधिक महत्ता प्रकट करने हेतु ही लिखा है कि केवली या चतुर्दश पूर्वधर ही इन पदार्थों का सम्पूर्ण रूप से विशद वर्णन कर सकते हैं ।
प्रत्येक चतुर्दश पूर्वधर को, चाहे वह पूर्ववर्ती हो अथवा पश्चाद्वर्ती - उसे आगमों में श्रुतकेवली के विरुद से विभूषित कर केवलीतुल्य प्ररूपणा करने वाला माना गया है । एक श्रुतकेवली चाहे वह कितना ही अवान्तरकालवर्ती क्यों न हो वह पदार्थों के निरूपण में केवलीतुल्य है अतः वह यह कह कर कि अमुक-अमुक विषयों का विवेचन वह नहीं कर सकता है, चौदह पूर्वो के ज्ञान की हीनता अपने
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