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बालपि मणक] श्रुतकेवली-कास : प्राचार्य सय्यंभवस्व मी
२९७ . कर्ण-परम्परा से विद्युत् वेग की तरह यह समाचार सय्यंभव भट्ट के परिजनों तथा पुरजनों में फैल गया और सब ने परम हर्ष और संतोष का अनुभव किया।
. समय पर माता के नीरस जीवन में प्राशा-सुधा का सिंचन करते हुए. सय्यंभव के घर में पुत्र ने जन्म ग्रहण किया। माता के "मरणगं" शब्द से उस शिशु के पागमन की पूर्व सूचना लोगों को प्राप्त हुई थी अतः सब ने उस शिशु का नाम "मणक" रखा। माता ने अपने पुत्र मरणक के प्रति माता भोर पिता दोनों ही रूप में अपना कर्तव्य निभाते हुए बड़े स्नेहपूर्वक उसका लालन-पालन किया।
द्वितीया के चन्द्र की तरह क्रमशः बढ़ते हुए बालक मणक ने पाठ वर्ष की वय में पदार्पण किया और अपने समवयस्क बालकों के संग खेलने के साथ ही साथ अध्ययन भी करने लगा। बालक मणक प्रारम्भ से ही बड़ा भावूक और विनयशील था। उसने एक दिन अपनी माता से प्रश्न किया- "मेरी अच्छी मां ! मैंने मेरे पिता को कभी नहीं देखा, बतलामो मेरे पिता कौन और कहां हैं ?"
माता ने अपनी प्रांखों में उमड़ते हुए प्रश्रुसागर को बलपूर्वक रोकते हुए धर्य के साथ कहा- "वत्स ! जिस समय तुम गर्भ में थे, उसी समय तुम्हारे पिता ने श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली थी। एकाकिनी मैंने ही तुम्हारा लालनपालन किया है। पुत्र ! जिस प्रकार तुमने अपने पिता को नहीं देखा, ठीक उसी प्रकार तुम्हारे पिता ने भी तुम्हें नहीं देखा है। तुम्हारे पिता का नाम सय्यंभव भट्ट है। जिस समय तुम गर्भ में पाये थे, उस समय उन्होंने एक यज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ किया था। उसी समय दो धूर्त जैन श्रमरण प्राये मोर उनके धोखे में पाकर तेरे पिता ने उनके पीछे-पीछे जा मेरा और अपने घर-द्वार का परित्याग कर जैनश्रमण-दीक्षा ग्रहण कर ली। यही कारण है कि तुम पिता-पुत्र परस्पर एक दूसरे को अभी तक नहीं देख सके हो।"
माता के मुख से अपने पिता का सारा वृत्तान्त सुनकर बालक मणक के हृदय में अपने पिता सय्यंभव प्राचार्य को देखने की उत्कट अभिलाषा जाग उठी पोर एक दिन अपनी माता को पूछ कर वह अपने पिता से मिलने के लिये घर से निकल पड़ा।
प्राचार्य सय्यंभव उन दिनों अपने शिष्य समुदाय के साथ विविध ग्राम नगरों में विहार करते हुए चम्पापुरी पधारे हुए थे। सुयोग से बालक मणक भी पिता की खोज में घूमता-चामता चम्पा नगरी जा पहुंचा। वास्तव में जिसकी जो सन्ची लगन होती है वह अन्ततोगत्वा पूरी होकर ही रहती है। कहा भी है :
"जिहि के जिहि पर सत्य सनेहू, सो तिहि मिलत न कछु सन्देहू ।"
पुण्योदय से मणक की मनोकामना पूर्ण हो गई। उसने नगरी के बाहर बोष-निवृत्ति के लिये माये हुए एक मुनि को देखा। "अवश्य ही ये मेरे पिता के सहयोगी मुनि होंगे" - इस विचार के माते ही सहसा मणक के हृदय में बड़ी
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