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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रा. रत्न के अनुसार यह संकटकाल है, तब तक वे नगर के मध्यभाग में रहें, जिससे कि समस्त श्रावक संघ को पाने पूज्य श्रमणों को सुरक्षा व भोजन आदि की व्यवस्था के सम्बन्ध में निश्चिन्तता एवं संतोष रहे। साधुसंघ श्रावकों के प्राग्रह को न टाल सका और श्रावकसंघ बड़े उत्सव के साथ मुनिसंघ को उसी समय नगर में ले आया।'
__ रामल्य, स्थूलाचार्य, स्थूलभद्र आदि मुनियों को आहारार्थ जाते देख कर हजारों भूखे मानवों की भीड़ उनको घेर लेती और बड़े करुण स्वर में खाने के लिये कुछ दिलाने को उनसे प्रार्थना करती। उन भूखे लोगों की रुकावट के कारण साधुओं को बिना भोजन लिये ही पुनः अपने स्थान पर लौट जाना पड़ता। आहारार्थ निकलने पर मुनि लोग उन भूखे लोगों की अपार भीड़ के कारण किसी श्रावक के घर पर पहुंच तक नहीं पाते थे। उन भूखे कृषकाय नरकंकालों को मुनियों के मार्ग में से हटाने हेतु यदि कोई श्रद्धालु श्रावक उन्हें लकड़ी प्रादि से डराने का प्रयास करते तो वे बड़ी करुण पुकार कर रोने लगते । करुण, कोमल चित्तवाले दयालु मुनिगण. उन अस्थिपंजरावशेष दुष्कालपीड़ित लोगों की हृदयद्रावक करुण पुकार से द्रवित हो बिना पाहार किये ही अपने स्थान को लोट जाते।
इस प्रकार की संकटापन्न स्थिति से दुखित हो श्रावक लोग मुनिगण के पास जाकर प्रार्थना करने लगे- “पूज्यवर ! नगर की सम्पूर्ण भूमि दीन-हीन दुखी और भूखे लोगों से पूर्णरूपेण संकुल है। इन लोगों के भय से कोई ग्रहस्थ क्षण भर के लिये भी अपने घर के कपाट नहीं खोल पाता। इसी कारण हम लोग दिन में भोजन न बना कर रात्रि में बनाते हैं। येन केन प्रकारेण इस प्रति विकट दुरे समय को निकालना होगा। जब तक यह संकटकाल है तब तक प्राप मुनिगण रात्रि के समय पात्रों में हम लोगों के घरों से पाहार ले आया करें और दिन के समय भोजन कर लिया करें । अब दूसरा और कोई रास्ता नहीं है । अतः प्राप हमारी प्रार्थना स्वीकार करें।
श्रावकों की बात सुनकर उन मार्गभ्रष्ट कुमार्गगामी साधुओं ने यह कहते हए कि- "जब तक अच्छा काल नहीं भावेगा तब तक ऐसा ही किया जायगा" तुम्बी के पात्र स्वीकार कर लिये । भिक्षुक तथा कुत्ते प्रादि के भय से वे लोग हाथ में दण्ड धारण कर गृहस्थों के घरों से तथा घरों के द्वार बन्द रहने की दशा में उन बन्द गृहों के गवाक्षों से प्राहार ले कर अपने स्थान पर लाने लगे पोर वे कुपथगामी साधु निरन्तर इसी प्रकार पाहार ला कर अपना उदरपोषण करने लगे।
'भाईरभ्ययिता भूयोऽङ्गी बस्तहनोवरम् । ___ संयतास्त: समानीता, मध्ये बंगं महोत्सवात् ॥६१॥ . भद्रबाहु परित्र, परिच्छेद ३, श्लोक ७२ से ७५
(भद्रबाहु चरित्र
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