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प्रा० रन० के अनुसार] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु
३५३ किया तो पग-पग पर श्रद्धालु भक्तों ने उनका हार्दिक स्वागत करते हुए सात्विक परमान से उन्हें पारणा करवाया।
मुनि चन्द्रगुप्ति ने गिरिगुहा में लौट कर अपने गुरु भद्रबाहु की सेवा में सारा वृत्तान्त यथावत् निवेदित किया और वे अहर्निश गुरु-सेवा में निरत रहने लगे।
अनेक दिनों के अनशन के पश्चात् चार प्रकार की आराधना एवं निर्मल ध्यान करते हुए कामनाशून्य हो भद्रबाहु ने समाधिपूर्वक प्राणत्याग कर स्वर्गगमन किया।
प्राचार्य भद्रबाहु के स्वर्गगमन के पश्चात् भी मुनि चन्द्रगुप्ति उसी पर्वत की गुफा में अपने गुरु के चरण अंकित कर उन चरणों की सेवा एवं श्रमणधर्म का पालन करते हुए रहने लगे ।
। उधर अवन्ती राज्य में रामल्य, स्थूलाचार्य, और स्थूलभद्र प्रादि जो मुनि प्राचार्य भद्रबाह के आदेश का उल्लंघन कर उज्जयिनी में रहे थे, उनको भीषण दुर्भिक्ष के कारण अनेक प्रकार के संकटों का सामना करना पड़ा। दुर्भिक्ष के प्रारम्भ में कोटिपति कुबेरमित्र आदि दानी एवं धर्मात्मा श्रेष्ठियों ने मुक्तहस्त हो अकाल पीड़ितों को धन-धान्यादिक का दान दिया पर ज्यों ही अकालग्रस्त अन्य क्षेत्रों के लोगों को उन श्रेष्ठियों द्वारा दिये जाने वाले दान का पता चला तो सभी दुर्भिक्षग्रस्त क्षेत्रों की दुष्कालपीड़ित भूखी प्रजा बाढ़ की तरह उज्जयिनी की अोर उमड़ पड़ी। उस भूखे जनसमुद्र के कारण उज्जयिनी की स्थिति भी बड़ी करुण, बीभत्स, क्षुब्ध, अस्तव्यस्त, निरंकुश और बड़ी हृदयद्रावक बन गई। नगर के सभी पथ, वीथियां, बाजार, चौगान आदि का चप्पा-चप्पा नरकंकालों से ठसाठस व्याप्त हो गया। सारी उज्जयिनी रकमयी दिखने लगी।'
उज्जयिनी में रामल्य प्रादि साधनों के समक्ष भिक्षार्थ शहर में जाते समय अनेक प्रकार की बाधाएं और विषम परिस्थितियां पाने लगीं। एक दिन नगर में श्रावकों के घर आहार करने के पश्चात् जब श्रमरणसमूह नगर के बाहर उपवन की ओर जा रहा था तो उस समय एक मुनि किसी तरह उन साधुनों से पीछे रह गया। उसी समय भोजन कर के प्राये हुए उन एकाकी मुनि का उदर भरा हुप्रा देख कर कुछ भूखे लोगों ने मुनि को घेर लिया। उन बुभुक्षित लोगों ने तत्क्षण बड़ी निर्दयतापूर्वक उस मुनि का पेट चीर डाला और उसमें से सद्यःभुक्त भोजन निकाल कर खा लिया। इस अमानवीय हृदयद्रावक घटना से सारे नगर में हाहाकार व्याप्त हो गया।
श्रावकसंघ ने एकत्रित हो साधुषों की सुरक्षा हेतु विचारविनिमय किया और अच्छी तरह सोच विचार के पश्चात् मुनिसंघ से प्रार्थना की कि जब तक ' भद्रबाहु चरित्र, (रत्ननंदी) परिच्छेद ३, श्लोक ४७ से ५३ २ वही, श्लोक ५४ से ५६
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