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प्रा० रत्न० के अनुसार] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु
. स्थूलाचार्य की बात सुन कर कतिपय साधुओं ने तो उसी समय मूलमार्ग अपना लिया किन्तु बहुत से मुनि क्रुद्ध हो स्थूलाचार्य को डण्डों से पीटने लगे । उन मुनियों ने स्थूलाचार्य को बड़ी निर्दयतापूर्वक मार कर वहीं एक गहरे गड्ढे में डाल दिया । प्रार्तध्यान के साथ मर कर स्थूलाचार्य व्यन्तर देव हुए। अवधिज्ञान से अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त जान कर स्थूलाचार्य के जीव व्यन्तर देव ने अग्नि, धूलि और पत्थर आदि की वृष्टि कर उन साधुओं को तरह-तरह के घोर कष्ट देने प्रारम्भ किये।
___ व्यन्तर द्वारा दिये गये घोर कष्टों से पीड़ित हो उन साधुओं ने व्यन्तर से क्षमायाचना करते हुए स्थूलाचार्य की हड्डी तथा चार अंगुल चौड़ी, पाठ अंगुल लम्बी लकड़ी की पट्टी में स्शुलाचार्य की कल्पना कर उनकी पूजा करना प्रारम्भ किया। कालान्तर में वह व्यन्तर देव इन लोगों का पर्युपासन नामक कुलदेवता कहलाने लगा, जो आज भी गन्धादि द्रव्यों से पूजा जाता है । वही आश्चर्यजनक अर्द्धफालक मत कलियुग का बल पाकर आज सब लोगों में फैल गया।"
यह है, विभिन्न काल में हुए भद्रबाहु नामक प्राचार्यों के साथ श्वेताम्बरदिगम्बर मतभेद की उत्पत्ति को जोड़ने का एक प्रकार से ऋमिक इतिहास ।
दिगम्बर परम्परा के विभिन्न ग्रन्थों के अध्ययन से यह तथ्य सामने प्राता है कि विभिन्नकाल में भद्रबाहु नाम के निम्नलिखित ५ प्राचार्य हुए हैं :
, (१) अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु, जिनका स्वर्गवास वी०नि० सं० १६२ में हुआ और जो भगवान् महावीर के वें पट्टधर थे।
(२) २६वें पट्टधर प्राचार्य भद्रबाह अपर नाम यशोबाह जो पाठ अंगों के धारक थे और जिनका काल वीर नि० सं० ४६२ से ५१५ तक का माना गया है।
(३) प्रथम अंगधर आचार्य भद्रबाहु, जिनका काल वी०नि०सं० १००० के पास-पास का अनुमानित किया जाता है । यथा :
अग्गिम अंगी सुभद्दो, जसभद्दो भद्दबाहु परमगणी। पायरियपरंपराइ, एवं सुदणाणमावहदि ॥४७॥
[मंग पन्नत्ति, चूलिका प्रकीर्णक प्रज्ञप्ति] (४) नन्दीसंघ, बलात्कार गण की पट्टावली के अनुसार प्राचार्य भद्रबाहु जिनका प्राचार्यकाल वी० नि० सं० ६०६ से ६३१ माना गया है। इन्हीं के शिष्य का नाम गुप्तिगुप्त था।' ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हीं भद्रबाहु और गुप्तिगुप्त के कथानक को थोड़ा अतिरंजित करके कहीं श्रुतकेवली भद्रबाह की जीवनी के साथ जोड़ दिया गया हो । गुरु-शिष्य के नाम मोर उनका काल भी करीब-करीब वही है।
(५) निमित्तज्ञ भद्रबाहु जो एकादशांगी के विच्छेद के पश्चाद हुए। श्रुतस्कन्ध के कर्ता के अनुसार इनका समय विक्रम की तीसरी शताब्दी बैठता
न सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ. ३३३
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