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वेदसूत्रकार श्रुत० भद्रबाहु] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु भी प्राचार्य भद्रयाहु का चतुर्दशपूर्वधर और छेदसूत्रकार के रूप में परिचय दिया गया है।
इस प्रकार इन उपरिलिखित प्रमाणों से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि अंतिम श्रतकेवली प्राचीन गोत्रीय प्राचार्य भद्रबाह छेदसूत्रों के निर्माता थे।
प्रब सबसे बड़ा यह प्रश्न सामने प्राता है कि दश नियुक्तियों के कर्ता अन्तिम श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु थे अथवा भद्रबाहु नाम के अन्य कोई प्राचार्य।
भगवान् महावीर के शासन के सातवें पट्टधर चतुर्दश पूर्वधर आचार्यभद्रबाहु वर्तमान में उपलब्ध नियुक्तियों के रचनाकार नैमित्तिक भद्रबाहु से भिन्न हैं। दोनों समान नाम वाले महापुरुषों को एक ही व्यक्ति ठहराने के पक्ष में जो प्राचीन प्राचार्यों के उल्लेख कतिपय विद्वानों द्वारा प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं उनकी प्रौचित्यानौचित्यता पर विचार करने से पहले उन्हें यहां प्रस्तुत किया जा रहा है :
१. प्रोष नियुक्ति की द्रोणाचार्य कृत टीका में चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु स्वामी को ही नियूंक्तिकार बताते हुए लिखा है :
गुणाधिकस्य वन्दनं कर्त्तव्यं न त्वषमस्य, यत उक्तम् - "गुणाहिए वंदणयं ।” भद्रबाहु स्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरत्वाद् दशपूर्वधरादीनां च न्यूनत्वात् किं तेषां नमस्कारमसौ करोति ? इति । अत्रोच्यते गुणाधिका एव ते,अव्यवच्छित्ति गुणाधिक्यात्, प्रतो न दोष इति ।" (पत्र ३)
२. शीलांकाचार्यकृत प्राचारांग की टीका पत्र ४ पर -
"अनुयोगदायिनः सुधर्मस्वामिप्रभृतयः यावदस्य भगवतो नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरस्याचार्यों प्रतस्तान् सर्वानिति ।" ऐसा उल्लेख है।
३. उत्तराध्ययन सूत्र की शान्तिसूरि द्वारा कृत पाइय टीका के पत्र १३६ पर भी लिखा है :
"न च केषांचिदिहोदाहरणानां नियुक्तिकालाक्किालाभाविता इत्यन्योक्तत्वमाशंकनीयम्, स हि भगवांश्चतुर्दशपूर्ववित् श्रुतकेवलो कालत्रयविषयं वस्तु पश्यत्येवेति कथमन्यकृतत्वाशंका ? इति ।"
४. विशेषावश्यक टीका, पत्र १ पर मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने लिखा है :'सतमतो पिरवाहू जाणुयसीमुपरिन्यय सुबाहू । नामेण भवाहू पविहि साधम्ममहोत्ति ।। सो विय चोदसपुम्बी, वारसवासाई जोगपडियन्नो। सुतत्येण निबंधह, प्रत्यं प्रज्झयण बन्धस्स ।। [तिस्योगालियपइणा (अप्रकाशित)]
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