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छेदसूत्रकार श्रृंत भद्रबाहु] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु बैठे कि उत्तराध्ययन की नियुक्ति चतुर्दशपूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा रचित नहीं अपितु किसी अन्य द्वारा रचित है अथवा ये उदाहरण किसी अन्य प्राचार्य द्वारा इसमें जोड़े गये हैं । क्योंकि आचार्य भद्रबाहु स्वामी श्रुतकेवली होने के कारण त्रिकालदर्शी थे और अपने पश्चाद्वर्ती अर्वाचीन महापुरुषों के सम्बन्ध में भी विवरण लिखने में समर्थ थे।
तकेवली भद्रबाहु नियुक्तिकार नहीं चतुर्दशे पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु नियुक्तिकार नही हो सकते, इस तथ्य की पुष्टि में निम्न लिखित प्रमाण द्रष्टव्य हैं :- १. चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु नियुक्तियोंके कर्ता नहीं हैं । यदि वे नियुक्तिकार होते तो वे अपने आपकी स्तुति करते हुए स्वयं को नमस्कार नहीं करते और न अपने शिष्य आर्य स्थूलभद्र का 'भगवान् स्थूलभद्र' इन स्तुत्यात्मक शब्दों में गुणगान ही करते । पर नियुक्तियों में इस प्रकार के लोकव्यवहार विरुद्ध उदाहरण विद्यमान हैं । दशाश्रुतस्कन्ध-नियुक्ति की पहली गाथा में नियुक्तिकार द्वारा भद्रबाहु स्वामी को निम्नलिलित शब्दों में नमस्कार किया गया है :
वंदामि भद्दबाहुं, पाइणं चरिमसगलसुयनारिंग ।
सुत्तस्स कारगमिसिं, दसासु कप्पे य ववहारे ।।१।। यदि चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु नियुक्तिकार होते तो क्या वे अपने आपको इस प्रकार वन्दन करते ? कदापि नहीं। सभ्य संसार के साहित्य में एक भी इस प्रकार का उदाहरण उपलब्ध नहीं होता, जिसमें किसी साधारण से साधारण अथवा महान् से महान् व्यक्ति ने अपने आपको नमस्कार किया हो । लोकगुरू तीर्थकर भी “नमो तित्थस्स" कह कर तीर्थ को नमस्कार करते हैं न कि स्वयं को।
___ यहां यह शंका उठाई जा सकती है कि यह गाथा नियुक्तिकार की नहीं अपितु भाष्यकार की है अथवा प्रक्षिप्त है । पर चुरिणकार के निम्नलिखित स्पष्टीकरण के पश्चात् इस प्रकार की शंका के लिये कोई अवकाश नहीं रह जाता। चूरिणकार ने इस गाथा को भावमंगल की संज्ञा देते हुए नियुक्ति की मूल गाया बताया है :
चूणि :- तं पुरण मंगलं नामादि चतुर्विधं प्रावस्सगाणुक्कमेण परवेयव्वं । तत्थ भावमंगलं निज्जूत्तिकारो आह - "वंदामि, भद्दबाहं....."इत्यादि । भहबाह नामेणं । पाईयो गोत्तेणं । चरिमो अपच्छिमो। सगलाई चोहसपुव्वाइं। कि निमितं नमोक्कारो तस्स कज्जति ? उच्यते जेण सुत्तस्स कारपोण अस्पस्स, अत्थो तित्यगरातो पसूतो । जेण भण्णति - "प्रत्थं भासति परहा० गाथा । कतरं सुत्तं? दसानो कप्पो ववहारो य । कतरातो उद्धृतम् । उच्यते पच्चक्खाणपुण्यातो। प्रहवा भावमंगलं नंदी सा तहेव चउन्विहा ।
छेदसूत्रों में दशाश्रुतस्कन्ध श्रुतकेवली भद्रबाहु की सर्वप्रथम कृति के रूप में प्रसिद्ध है, इसी लिये नियुक्तिकार ने दशाश्रुतस्कन्ध की नियुक्ति में श्रुतकेवली भद्रबाहु को नमस्कार किया है।
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