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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [श्रुत० भ० नियुं ● नहीं
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उत्तराध्ययन सूत्र की नियुक्ति में नियुक्तिकार ने आचार्य स्थूलभद्र को भगवान् की उपमा से अलंकृत करते हुए उनका निम्नलिखित शब्दों में गुरणगान किया है :
'भगवं पि थूलभद्दो, तिक्खे चकम्मिश्रो न उरण छिन्नो । प्रग्गिसिहाए वुत्थो चाउम्मासे न उरण दडूढो ||
साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति भी निर्युक्ति की इस गाथा को देखकर यही कहेगा कि इस नियुक्ति के कर्त्ता यदि श्रुतकेवली भद्रबाहु होते तो वे अपने शिष्य की भगवान् के तुल्य इस प्रकार स्तुति नहीं करते ।
इन दोनों गाथाओं की ओर शान्त्याचार्य ने ध्यान दिया होता तो वे कदापि उत्तराध्ययन सूत्र के परीषहाध्ययन की टीका में " न च केषांचिदिहोदाहरणानां नियुक्तिकालाद्दर्वाक्काला - भाविता इत्यन्योक्तत्वमाशंकनीयम्, स हि भगवांश्चतुदेश पूर्ववित् श्रुतकेवली कालत्रयविषयं वस्तु पश्यत्येवेति कथमन्यकृतत्वाशंका ? इति" यह कभी नहीं लिखते । क्योंकि श्रुतकेवली त्रिकालवर्ती वस्तुनों को देखते हैं लेकिन स्वयं को नमस्कार करने और अपने शिष्य की भगवान् तुल्य स्तुति करने जैसे लोक व्यवहार विरुद्ध आचरण कदापि नहीं कर सकते ।
२. चतुर्दश पूर्वघर प्राचार्य भद्रबाहु निर्मुक्तिकार नहीं हैं, इस पक्ष का प्रबल समर्थक दूसरा प्रमाण यह है कि श्रावश्यक नियुक्ति की गाथा संख्या ७६२, ७६३, ७७३, और ७७४ में यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि वज्रस्वामी के समय ( वी० नि० सं० ५८४ तदनुसार वि० सं० ११४) तक कालिक सूत्रों का पृथक् पृथक् अनुयोग के रूप में विभाजन नहीं हुआ था । वज्रस्वामी के पश्चात् देवेन्द्रवन्दित श्रार्य रक्षित ने समय के प्रभाव से अपने विद्वान् शिष्य दुर्बलिका पुष्यमित्र की स्मरणशक्ति के ह्रास को देखकर सूत्रों का पृथक्करण चार अनुयोगों के रूप में किया ।'
पट्टावलियों में प्रार्य रक्षित के वी० नि० सं० ५६७ में स्वर्गस्थ होने का उल्लेख मिलता है । ऐसी दशा में वी० नि० सं० ५८४ से ५६७ के बीच में चार
" मूढरणइयं सुयं कालियं, तु ग गया समोयरंति इहं । धपुत समोयारो प्रत्थि पुहुत्त समोयारो ।।७६२ ।। जाति प्रज्जवइरा, प्रपुहत कालियारणुद्योगे य । तेरणारेण पुहुत, कालियसुय दिट्ठिवाए य । । ७६३ । । प्रहतं मरणुभोगो, बत्तारि दुवार भासई एगो । पहत्तारणुभोगकरणे ते प्रत्यतम्रो उ वोच्छिन्ना ।।७७३।। देविदवं डिएहि, महाणुभागेहि रक्खि भज्जेहि । जुगमासज्ज विभत्तो, धरणुभोगो तो कम्रो चउहा ।। ७७४ ||
मत्र श्री स्वामिश्रीवासेनयोरंतरालकाले श्रीमदायं रक्षितसूरिः श्रीदुर्बलिकापुष्य (मित्र) श्वेति क्रमेण युगप्रधानद्वयं संजातं । तत्र श्रीमदायं रक्षितसूरिः सप्तनवत्यधिकपंचशत ५६७ वर्षान्त स्वर्गभागिति पट्टावस्यादी दृश्यते परमावश्यकवृत्यादी श्रीमदार्थ - रक्षित सूरीणां स्वर्थगमनानन्तरं चतुरशीत्यधिकपंचशत ५८४ वर्षान्त सप्तम निन्हर्वोत्पत्तिरुक्तास्ति । तर बहुत तगम्यमिति । [तपागच्छ पट्टावली ( धर्मसागर गरिरचित), गा.० ६ ]
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