________________
प्रा० रत्न० के अनुसार ]
श्रुतकेवली - काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु
३५१
(१६) सोलहवें (अंतिम) स्वप्न में तुमने दो काले हाथियों को लड़ते देखा है, वह स्वप्न इस दुःखद भविष्य का द्योतक है कि अब आगे के समय में बादल समय पर और मनुष्यों की अभिलाषा के अनुसार नहीं बरसेंगे ।
श्रुतकेवली भद्रबाहु से अपने १६ स्वप्नों का फल सुन कर महाराज चन्द्रगुप्ति को दृढ़ विश्वास हो गया कि भविष्य में पग-पग पर भीषरण संकटों से प्राकी विकट समय आने वाला है । भवभ्रमरण की भयावहता पर विचार करतेकरते उन्हें संसार से विरक्ति हो गई और उन्होंने अपने पुत्र को ग्रवन्ती का राज्य सौंप कर प्राचार्य भद्रबाहु के पास निर्ग्रन्थ श्रमरण - दीक्षा ग्रहण कर ली ।
कुछ समय पश्चात् एक दिन प्राचार्य भद्रबाहु जिनदास सेठ के घर पर आहार के लिये गये । उस सुनसान घर में पालने में झूलते हुए दो मास के शिशु ने चिल्ला कर भद्रबाहु को कहा - "चले जाओ ! चले जाओ !" यह अद्भुत एवं अभूतपूर्व दृश्य देख कर प्राचार्य भद्रबाहु ने शान्त स्वर में उस शिशु से पूछा - "बोलो वत्स ! कितने वर्ष के लिये चले जायें ?"
उत्तर में उस शिशु ने कहा- "बारह वर्ष के लिये ।"
निमित्तज्ञान में निष्णात श्रुतकेवली भद्रबाहु को यह समझने में निमेषमात्र समय भी नहीं लगा कि समस्त मालव प्रदेश में १२ वर्ष के लिये भीषण दुर्भिक्ष पड़ने वाला है । वे तत्काल अपने स्थान की ओर लौट गये । अपने स्थान पर प्राकर भद्रबाहु ने समस्त मुनिसंघ को बुलाया और भावो भीषण संकट की सूचना देते हुए उन्होंने कहा कि धनधान्यादिक में सुसम्पन्न यह मालव प्रदेश श्रागामी बारह वर्षों के लिये प्रभाव-अभियोग, लूट-खसोट, एवं भुखमरी का बीभत्स क्रीडांगरण बनने वाला है । अब आगे चल कर यहां संयम का पालन दुरूह ही नहीं अपितु असंभव सा बन जायगा अतः समस्त श्रमरणसंघ को सुदूर दक्षिण की प्रोर विहार कर देना चाहिये ।"
अपने दूरदर्शी एवं श्रुतकेवली प्राचार्य का प्रादेश सुन कर समस्त मुनिसंघ दक्षिण की ओर विहार करने के लिये उद्यत हो गया । श्रावकसंघ को ज्यों ही प्राचार्यश्री के इस निर्णय की सूचना मिली तो समस्त श्रावकसंघ भद्रबाहु स्वामी की सेवा में उपस्थित हो प्रार्थना करने लगा कि समस्त श्रमरणसंघ अवन्ती देश में ही रहे, अन्यत्र विहार न करे । अनेक कोटिपति श्रावकों ने कहा कि उनमें से एक-एक के पास धन-धान्यादिक का इतना अपार संग्रह है कि उससे वे बारह वर्ष ही नहीं बल्कि सौ वर्ष तक उज्जयिनी के अकालग्रस्त लोगों का परिपालन कर सकते । ऐसी दशा में भीषरण से भीषण और लम्बे से लम्बे दुष्काल में भी श्रमण संघ को किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं होगी ।
श्रावकसंघ द्वारा श्रनेक बार प्रार्थना किये जाने पर भी भद्रबाहु स्वामी ने अपने निर्णय पर स्थिर रहते हुए कहा- "श्रद्धालु उपासकवृन्द ! यहां जो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org