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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रा० रत्न० के अनुसार निरंतर बारह वर्ष का दुष्काल पड़ने वाला है, वह इतना भयावह होगा कि यहां पर रहने वाले साधुओं के लिये व्रत-संयम का पालन असंभव हो जायगा।"
श्रावकसंघ द्वारा बारम्बार की गई आग्रहपूर्ण प्रार्थना सुन कर रामल्य, स्थूलाचार्य एवं स्थूलभद्र आदि साधुनों ने उज्जयिनी के बाहर उपवनों में रहना स्वीकार कर लिया पर शेष १२,००० साधुओं को साथ ले कर प्राचार्य भद्रबाहु ने दक्षिण की ओर विहार कर दिया । शने-शनै विहार करते हुए प्राचार्य भद्रबाहु अपने साधुसमूह सहित एक गहन एवं विस्तीर्ण वन में पहुंचे। वहां एक अद्भुत गगनघोष को सुन कर निमित्त-ज्ञान से भद्रबाहु को ज्ञात हो गया कि अब उनका अन्तिम समय सन्निकट ही है । उन्होंने तत्क्षण दशपूर्वधर विशाखाचार्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और श्रमणसंघ से कहा कि अब उनकी प्रायु का अति स्वल्प समय अवशिष्ट रहा है अतः वे उसी वन की किसी गिरिकन्दरा में रहेंगे। उन्होंने विशाखाचार्य के नेतृत्व में श्रमणसंघ को बारह वर्ष पर्यन्त दक्षिण देश में ही विचरण करते रहने का आदेश दिया।
विशाखाचार्य और अन्य श्रमणों ने यह सब कुछ सुन कर शोकसंतप्त हो अत्यन्त प्राग्रहपूर्वक प्रार्थना की कि समग्र श्रमणसंघ को अपने प्राचार्य की अन्तिम सेवा का लाभ लेने दिया जाय । पर अन्ततोगत्वा गुरु प्राज्ञा को शिरोधार्य कर विशाखाचार्य को श्रमणसंघ के साथ दक्षिण की ओर विहार करना पड़ा। चन्द्रगुप्ति मुनि, भद्रबाहु द्वारा बार-बार श्रमणसंघ के साथ चले जाने का आग्रह किये जाने के उपरान्त भी भद्रबाहु की सेवा में ही रहे ।
__ प्राचार्य भद्रबाहु ने यौगिक विधि से अपने मन, वचन, काय के समस्त योगों की वृत्तियों का निरोध कर एक गिरिगुहा में संलेखना की । उस निर्जन बीहड़ वन में आहार-पानी का मिलना नितान्त असंभव समझ कर चन्द्रगुप्ति मुनि कई दिन तक उपवास पर उपवास करते हुए रात दिन निरन्तर गुरु-सेवा में रहने लगे। कुछ दिनों पश्चात् मुनि चन्द्रगुप्ति को गुरु-प्राज्ञा शिरोधार्य कर वन में भिक्षार्थ जाना पड़ा। प्रथम दो दिन तक तो देवी माया से बिना किसी दानदाता की उपस्थिति के निर्दोष भोजन उनके समक्ष प्रस्तुत होता रहा पर प्राचारनिष्ठ मुनि ने उसे ग्रहण नहीं किया और वन से लोट कर सारा वृत्तान्त अपने गुरु को निवेदन कर दिया। योगी भद्रबाह ने चन्द्रगुप्ति के प्राचार की प्रशंसा की। तीसरे दिन भिक्षार्थ वन में घूमते हुए चन्द्रगुप्ति मुनि ने देखा कि एकाकिनी स्त्री उन्हें भिक्षा ग्रहण करने की प्रार्थना कर रही है पर इसे भी साधु प्राचार के प्रतिकूल समझ कर मुनि चन्द्रगुप्ति विना भिक्षा ग्रहण किये ही लौट आये। भद्रबाहु ने अपने शिष्य के मुख से उपरोक्त विवरण सुन कर उनकी प्राचारनिष्ठा की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
चौथे दिन गुरु-प्राशा से मुनि चन्द्रगुप्ति उस वन में भिक्षा एक पोर निकले तो उन्होंने समीप ही एक सुन्दर नगर देखा। मुनि ने उस नगर में प्रवेश
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