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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रबंधकोश के अनुसार अपने अपमान से संत्रस्त वराहमिहिर ने पुनः भागवती दीक्षा ग्रहण की और प्रत्युग्र तप करने लगा। अन्त में वराहमिहिर मर कर जैनधर्म का विद्वेषी व्यन्तर देव हुप्रा। वह व्यन्तर बहुत कुछ प्रयत्न करने पर भी साधुओं का किसी प्रकार का अपकार न कर सका क्योंकि तपोपूत महात्माओं के वजोपम तप-कवच पर किसी भी प्रकार के अनिष्ट का किंचित्मात्र भी प्रभाव नहीं होता। अतः वह व्यन्तर श्रावकों को अनेक प्रकार के रोगों और उपद्रवों से पीड़ित करने लगा। श्रावकों ने आचार्य भद्रबाह के समक्ष अपनी दुःखगाथाएं रखते हुए उनसे रक्षा की प्रार्थना की। इस पर प्राचार्य भद्रबाहु ने श्रावकों को प्राश्वस्त करते हुए कहा कि उन्हें डरने की प्रावश्यकता नहीं है । व्यन्तर रूप से उत्पन्न हुआ वराहमिहिर पूर्ववैर के कारण उन्हें कष्ट दे रहा है। वह तो साधारण कोटि का व्यन्तर जाति का देव है, आवश्यकता पड़ने पर वे वज्रपाणि (इन्द्र) से भी अपने भक्तों की रक्षा करेंगे । तदनन्तर प्राचार्य भद्रबाहु ने पूर्वो से उद्धत कर "उवसग्गहरं पासं"इस पद से प्रारम्भ होने वाली पांच गाथानों का एक स्तोत्र बना कर लोगों को सिखाया। उस उपसर्गहर स्तोत्र के पाठ के प्रभाव से तत्काल व्यन्तरकृत सब उपसर्ग शान्त हो गये और सर्वत्र शान्ति का साम्राज्य व्याप्त हो गया। कष्टनिवारणार्थ आज भी लोग उस स्तोत्रराज का पाठ करते हैं। वस्तुतः वह अद्भुत चिन्तामणिरत्न के समान है ।
गुरु पट्टावली के अनुसार "गुरु पट्टावली" - (जिसके रचनाकार का नाम अज्ञात है) में छठे पट्टधर प्राचार्य संभूतविजय के पश्चात् भद्रबाहु का जो उल्लेख किया गया है, वह इस प्रकार है :
___ "भद्रबाहुस्वामी पुनः आवश्यक नियुक्तिकृत् । तद्भ्राता वराहमिहिरस्त्यक्तव्रतो राज्ञः पुरोहितो राज्ञः पुरो निमित्तप्रकाशाद्यः प्राप्तप्रतिष्ठः तद्भातुः पराजयकरणे सभासमक्षं ५१ पल प्रमाणो मत्स्यः कुण्डप्रान्ते पतिष्यति, गुरुर्वक्ति ५२ पलप्रमारणो भत्स्यः कुण्डमध्ये पतिष्यति । जिनशासनप्रभावात् गुरुवाक्यमेव संजातं राजापि शासनोत्सवं चकार । ततोऽसौ वराहमिहिरो मानभ्रष्टो मृत्वा व्यतरीभूतः श्रीसंघमुपदद्राव, तज्ज्ञात्वा च भगवता उपसर्गहरस्तोत्रकरणेन स उपद्रवो निवारितः । स भगवान् ४५ वर्षारिण ग्रहे सप्तदश वर्षाणि व्रते चतुर्दश वर्षाणि युगप्रधानत्वे सर्वायुः षड्सप्तति बर्षारिण प्रपाल्य श्री वीरात् १७० वर्षे स्वर्ययो।"
[पट्टावली समुच्चय, पृ० १६४] महामहोपाध्याय श्री धर्मसागरणी ने तपागच्छ पावली में मत्स्यपतन की घटना को छोड़ कर गुरु पट्टावली के समान ही भद्रबाहु का परिचय दिया है।
[पट्टावली समुच्चय, पृ० ४४]
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