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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भद्रबाहु-दि० परं० उन लोगों ने निर्ग्रन्थ मार्ग की निन्दा और अपने मार्ग की प्रशंसा करते हुए अनेक प्रकार की मायामों के प्रदर्शन से लोगों को मूढ़ बना कर बहुत सा द्रव्य ग्रहण किया ।।७१।।
प्राचार्य शान्ति व्यन्तर बन कर अनेक प्रकार के उपद्रव करने लगा और उन लोगों (श्वेताम्बरों) को कहने लगा कि तुम लोग जैन धर्म को पाकर मिथ्यात्व मार्ग पर मत चलो ॥७२॥
व्यंतर द्वारा किये जाने वाले उपद्रवों से डर कर उन लोगों ने उस व्यन्तर की सकल द्रव्यों से संयुक्त पाठ प्रकार की पूजा की । उस व्यन्तर की उस समय जो पूजा जिनचन्द्र द्वारा विरचित की गई वह प्राज दिन तक प्रचलित है ।।७३।।
आज भी सबसे पहले वह बलिपूजा उस व्यन्तर के नाम से दी जाती है और वह व्यन्तर श्वेताम्बर संघ का पूज्य कुलदेव कहा जाता है ।।७४॥
यह पथभ्रष्ट श्वेताम्बरों की उत्पत्ति बताई गई है । अब मैं पागे प्रज्ञान मिथ्यात्व के विषय में कहूंगा उसे सुनो ।।७।।
इन गाथानों द्वारा प्राचार्य देवसेन ने स्पष्ट रूप से अपनी यह मान्यता प्रकट की है कि विक्रम संवत् १२४ तदनुसार वीर निर्वाण संवत् ५६४ में प्राचार्य भद्रबाहु ने श्रमणसंघ को भावी द्वादश वार्षिक दुष्काल की पूर्वसूचना देते हुए सलाह दी कि सब साधु उज्जयिनी (अवन्ती) राज्य को छोड़ कर दूर के प्रान्तों में चले जायं । तदनुसार शान्ति नामक एक आचार्य भी सोरठ देश की वल्लभीपुरी में जाकर अपने विशाल शिष्य परिवार के साथ रहने लगा। वहां शान्त्याचार्य एवं उनके शिष्यों ने दुष्कालजन्य विकट परिस्थितियों से मजबूर हो कर कम्बल, दण्ड, वस्त्र, पात्रादि धारण किये और गृहस्थों के यहां बैठ कर भोजन करना प्रारम्भ किया । मुभिक्ष होने पर शान्त्याचार्य ने अपने शिष्यों को पुनः निरवद्य दिगम्बर श्रमणाचार ग्रहण करने की सलाह दी । शान्त्याचार्य के शिष्यों ने उनकी प्राज्ञा का पालन करने से स्पष्टतः इन्कार कर दिया । शान्त्याचार्य ने अपने शिष्यों के जिनप्ररूपित धर्म से विपरीत पाचरण की कटु शब्दों में भर्त्सना की। इससे क्रुद्ध हो शान्त्याचार्य के प्रमुख शिष्य ने उनके कपाल पर दण्ड का प्रहार किया। रिणग्गंधं दूसित्ता णिदित्ता अप्पणं पसंसित्ता । जीवे मूढए लोए कयमाए मेहियं बहु दय्वं ॥७१।। इयरो वितर देवो संति लग्गो उवहवं काउं। जंपइ मा मिच्छत्तं गच्छह लहिऊण जिणधम्मं ॥७२। भीएहि तस्स पूमा अट्टविहा सयलदम्यसंपुष्णा । जा जिरणवन्द रइया सो प्रज्जवि दिगिया तस्स ।।३।। प्रग्ज वि सा बलि पूया पढ़मयरं दिति तस्स गामेण । सो कुलदेवो उत्तो सेवा संघस्स पुखो सो ॥७४।। इय उप्पत्ती कहिया सेवरयाणं च मग्गमवाणं । एन्चो उद्धं वोच्छ रिणसुबह मण्णाणमिच्छतं ॥७५।।
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