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श्रुतकेवली - काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु
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श्रमणों के साथ दक्षिण की ओर विहार करना, एक वन में पहुंचने के पश्चात् अदृश्य वारणी से अपना अन्तिम समय निकट समझ विशाख मुनि को प्राचार्य पद प्रदान कर उन्हें वारह वर्ष तक दक्षिणापथ में विचरते रहने का आदेश देना, चन्द्रगुप्ति का भद्रबाहु की सेवा में रहना, भद्रवाहु द्वारा अनशन ग्रहण, चन्द्रगुप्ति को वन में देवनिर्मित नगर से भिक्षा मिलना, भद्रबाहु का स्वर्गारोहण करना, स्थूलाचार्य प्रादि श्रमणों द्वारा पात्र, दण्ड वस्त्रादि ग्रहण करना, सुभिक्ष के पश्चात् श्वेताम्बर दिगम्बर भेद उत्पन्न होना आदि घटनानों का उसी रूप में वर्णन किया है, जिस प्रकार कि दिगम्वर परम्परा के अन्य ग्रन्थों में ग्रामतौर से उपलब्ध होता है ।
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प्राचार्य रतननन्दी के अनुसार
श्राज दिगम्बर परम्परा में ग्रामतौर पर वि० सं० १६२५ के आसपास हुए दिगम्बर प्राचार्य रत्ननन्दी, अपर नाम रत्नकीर्ति द्वारा रचित “भद्रबाहु चरित्र" सर्वाधिक मान्य गिना जाता है। अपने पूर्ववर्ती प्राचार्यों द्वारा वरिंगत भद्रबाहु चरित्र में रत्ननन्दी ने किस प्रकार की नवीन अभिवृद्धियां कीं, इस तथ्य से पाठक भली-भांति अवगत हो जायं, इस दृष्टि से उनके द्वारा रचित ग्रन्थ "भद्रबाहु चरित्र" में उल्लिखित भद्रबाहु का जीवन-परिचय यहां संक्षेप में दिया जा रहा है :
"भारतवर्ष के पुण्ड्रबर्द्धन राज्य की राजधानी कोट्टपुर नगर में पद्मधर नामक राजा राज्य करता था । उसके राजपुरोहित सोमशर्मा की पत्नी सोमश्री की कुक्षि से भद्रबाहु का जन्म हुआ । पौगण्डावस्था में एक दिन कुमार भद्रबाहु ने नगर के बाहर अपने सखानों के साथ गोलियों का खेल खेलते हुए बड़ी कुशलता के साथ चौदह गोलियों को एक दूसरी पर चढ़ा दिया । उस समय गिरनार की यात्रा के लिये जाते हुए श्री गोवर्द्धनाचार्य वहां पहुंचे। नग्न साधुग्रों को देखकर अन्य सव बालक तो भाग खड़े हुए पर निर्भीक कुमार भद्रबाहु वहीं खड़े रहे । गोली पर गोली, इस तरह चौदह गोलियों को एक दूसरी पर चढ़ी देख कर चतुर्दश पूर्वघर प्राचार्य गोवर्द्धन ने निमित्तज्ञान से पहिचान लिया कि वह बालक भविष्य में पंचम श्रुतकेवली होगा। बालक का परिचय प्राप्त करने के पश्चात् प्राचार्य गोवर्द्धन बालक भद्रबाहु के साथ उसके घर पहुंचे । द्विज-दम्पती ने हर्ष विभोर हो बड़ी श्रद्धा से प्राचार्यश्री को सविधि वन्दन किया । तदनन्तर सोमशर्मा ने विनयपूर्वक निवेदन किया- " करुणासिन्धो ! आपके दर्शन से हम कृतकृत्य हुए । प्रापके चरणसरोज से हमारा घर पवित्र हो गया । प्रभो ! इस दास के योग्य कोई सेवा कार्य फरमाकर इसे श्रनुगृहीत कीजिये ।"
गोवर्द्धनाचार्य ने कहा- "भद्र ! तुम्हारा यह पुत्र वालक भद्रबाहु महान् प्रतिभा सम्पन्न धौर महान् भाग्यशाली है । भविष्य में यह बहुत उच्चकोटि का विद्वान होगा। मैं इसे समस्त विद्याम्रों में पारंगत करना चाहता हूं, अतः इसे पढ़ाने के लिये हमारे सुपुर्द करो ।"
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