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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राचार्य रत्न के अनुसार द्विजदम्पती ने कहा - "अकारण करुणाकर ! यह तो आप हम लोगों पर महान् उपकार करने जा रहे हैं । इसके लिये हमसे पूछने की क्या आवश्यकता है? यह बच्चा आप ही का है। आप इसे ले जाइये और अपनी इच्छानुसार इसे सब शास्त्र पढ़ाइये।"
माता-पिता की अनुमति मिल जाने पर गोवर्द्धनाचार्य. बालक भद्रबाहु को अपने साथ ले गये और उसे व्याकरण, न्याय, साहित्य, दर्शन मादि सभी विषय पढ़ाने लगे । कुशाग्रबुद्धि भद्रबाहु ने अप्रतिम विनय, भक्ति, निष्ठा एवं परिश्रम से अध्ययन करते हुए स्वल्प समय में ही गुरू गोवर्द्धनाचार्य से समस्त विद्यामों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया। अध्ययन समाप्त कर चुकने के पश्चात् भद्रबाहु अपने गुरू से प्राज्ञा प्राप्त कर अपने माता-पिता की सेवा में कोट्टपुर लौटे । समस्त विद्याओं में निष्णात अपने पुत्र को देख कर सोमशर्मा और सोमश्री के हर्ष का पारावार न रहा । दृढ़ सम्यक्त वधारी विद्वान् भद्रबाहु के अन्तर में दिन प्रतिदिन जैन धर्म का उद्योत करने की भावना बल पकड़ने लगी। एक दिन भद्रबाहु कोटपुर नरेश पप्रधर की राज्यसभा में पहुंचे । महाराज पप्रधर ने अपने पुरोहित के तेजस्वी और विद्वान् पुत्र भद्रबाहु का बड़ी प्रसन्नतापूर्वक प्रादरसत्कार किया।
राज्यसभा में उस समय एकत्रित विद्वान् इस प्रश्न पर चर्चा कर रहे थे कि सब धर्मों में कौनसा धर्म श्रेष्ठ है। कोई भी विद्वान् अपनी युक्तियों से महाराज पअधर को संतुष्ट नहीं कर सका। अतः उन्होंने भद्रबाहु से अनुरोध किया कि वे इस विषय में अपना मन्तव्य रखें।
भद्रबाहु ने शान्त, गम्भीर और युक्तिपूर्ण शब्दों में धर्म के प्राधारभूत गूढ़ तथ्यों को रखते हुए सम्यक्त व, सत्य, अहिंसा प्रादि जैन धर्म के मूल सिद्धान्तों का ऐसी कुशलता से और सरलता के साथ प्रतिपादन किया कि सारी राजसभा मन्त्रमुग्ध सी हो निनिमेष दृष्टि से भद्रबाहु की ओर देखती रह गई।
___ वर्षों के प्रयास से अजित अपनी यशस्कीत्ति एवं विद्वत्ता की धाक को इस प्रकार एक अल्पवयस्क कुमार के हाथों अनायास ही धूलिधूसरित होते देख राजसभा के अनेक पण्डितमानी विद्वानों ने विविध प्रकार की जटिल से जटिलतर समस्याएं भद्रबाहु के समक्ष रखीं। पर प्रखरबुद्धि भद्रबाहु ने अपनी प्रकाट्य युक्तियों और प्रबल प्रमाणों से उन सब का तत्क्षण समाधान कर दिया। राज्यसभा में हुअा वह वादविवाद कुछ ही क्षणों में एक निर्णायक शास्त्रार्थ का रूप धारण कर गया । राज्य सभा के सभी विद्वानों ने संगठित हो भद्रबाहु को शास्त्रार्थ में पराजित करने के लिये प्रारणपण से पूरा बल लगा कर प्रयास किया किन्तु स्याद्वाद-सिद्धान्त रूपी सात धार वाले अमोघास्त्र से भद्रबाहु ने उन विद्वानों के युक्तिजाल को छिन्न-भिन्न कर डाला। अन्ततोगत्वा उस शास्त्रार्थ में भंद्रबाहु को समस्त विद्ववन्द का विजेता घोषित किया गया। महाराज पद्मधर और सभासद् भद्रबाहु द्वारा प्रस्तुत किये गये जैनधर्म के स्वरूप से ऐसे प्रभावित हुए
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