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भद्रबाहु दि० परं०] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु
वि० सं० १४६५ तदनुसार ई. सन् १४३६ में हुए रयधू नामक अपभ्रंश भाषा के महाकवि ने अपने ग्रन्थ "महावीर चरित्" में मौर्य राजाओं का उल्लेख करते हुए कुणाल के पुत्र का नाम सम्प्रति के स्थान पर चन्द्रगुप्ति दिया है । रयधू ने लिखा है कि कुणाल के पुत्र चन्द्रगुप्ति ने एक रात्रि में १६ स्वप्न देखे । श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाह से अपने स्वप्नों के फल को सुनकर उसे संसार से विरक्ति हुई और उसने प्राचार्य भद्रबाहु के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। इन प्राचार्य भद्रबाहु ने अपने निमित्तज्ञान से भावी बारह वर्ष तक दुष्काल पड़ने की सूचना श्रमणसंघों को दी और उन्हें दक्षिण में विचरण करने की सलाह दी। इसी द्वादशवार्षिक काल के पश्चात् श्वेताम्बर-दिगम्बर मतभेद उत्पन्न होने का उल्लेख करते हुए रयधु ने प्राचार्य भद्रबाहु के साथ-साथ श्वेताम्बर-दिगम्बर मतभेद की घटना को भी वीर निर्वाण संवत् ३३० के आसपास ला रखा है ।
रयधु ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। उसका स्थान दिगम्बर परम्परा के महाकवियों में माना जाता है। अतः रयधू की एतद्विषयक मान्यता वो यहां संक्षेप में दिया जा रहा है।
__ "चाणक्य ने चन्द्राप्ति को राजराजेश्वर के पद पर अभिषिक्त किया। वह चन्द्रगुप्ति बड़ा ही विख्यात राजा हुमा। उसके बिन्दुसार नामक पुत्र हुआ। बिन्दुसार का पुत्र हुमा अशोक और अशोक के रणउलु (कुरणाल) नाम का पुत्र हुमा। एक समय राजा अशोक अश्वों और हाथियों को सेना से सुसज्जित हो एक शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिये गया। अशोक ने युद्धस्थल से अपने नगर में एक प्राज्ञापत्र भेजा, जिसमें लिखा था कि "प्रधीयतु कुमारः" - अर्थात् कुमार को अब पढ़ाया जाय । गउलु (कुणाल) की सौतेली माता ने अपने नेत्रों के अंजन को मसी से 'प्रधीयतु' शब्द के प्रथमाक्षर पर अनुस्वार लगाकर "अंधीयतु कुमारः" बना दिया। प्राज्ञापत्र पढ़ कर अधिकारियों ने राजकुमार (कुणाल) को नेत्रविहीन कर दिया।
____ शत्रु पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् अशोक पुनः अपने घर लौटा तब अपने पुत्र को लोचनविहीन देखकर उसे बड़ा संताप हमा। समय पाने पर अशोक ने अपने अंधे पुत्र का विवाह कर दिया। उस अंधे राजकुमार के चन्द्रगुप्ति नामक एक पुत्र उत्पत्र हुमा जो कि सज्जनों को बड़ा आनन्द देने वाला था। अशोक ने अन्ततोगत्वा अपने पौत्र चन्द्रगुप्ति को राज्यपद दिया। राजा वनने के पश्चात् चन्द्रगुप्ति बड़े उत्साह के साथ जैनधर्म का प्रचार-प्रसार और पालन करने लगा। चन्द्रगुप्ति बड़ी श्रद्धा व भक्ति के साथ मुनियों को दान दिया करता था। एक समय रात्रि में सुसुप्तावस्था में चन्द्रगुप्ति ने १६ स्वप्न देखे। ' चन्दगुत्ति ते पविहिउ राउ, किंउ चाणक्क त उ जि पहाणउं ।
चन्दगुत्ति रायहो विक्खायउ बिदुसारु णंदरणु संजायउं ।। तहो पुत वि प्रमो उहु उप्पुषणउं, रणउनु 'णाम तहु सुउ उप्पण्णउं । गि उ प्रमोउ गउ वहरिउ उप्परि, पल्लाणेप्पिणु सज्जिवि हरि करि ।
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