________________
भद्रबाहु दि० परं०] श्रुतकेवली-काल : आचार्य श्री भद्रबाहुँ आप लोग भिक्षापात्र लेकर भिक्षा लेने हेतु रात्रि के समय ही हमारे घरों में पाया करें। रात्रि में लाया हुआ आहार दूसरे दिन खा लिया करें।"
श्रावकों के प्राग्रहपूर्ण निवेदन को स्वीकार करते हए उन श्रमणों ने रात्रि के समय पात्रों में भिक्षा लाने तथा दूसरे दिन आहार करने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी और इस प्रकार उस भयावह दुर्भिक्ष का समय व्यतीत होने लगा।
कुछ समय पश्चात् उन श्रमणों में से एक अत्यंत कृषकाय श्रमण अर्द्धरात्रि के समय भिक्षापात्र लिये गृहस्थ के घर में भिक्षार्थ प्रविष्ट हुआ। रात्रि के घनान्धकार में उस नग्न साधु के कंकालावशिष्ट बीभत्स स्वरूप को देखकर उस घर की गभिरणी गृहणी इतनी अधिक भयभीत हुई कि तत्काल उसका गर्भ गिर गया ।
इस दुर्भाग्यपूर्ण काण्ड से श्रमणों एवं श्रावकों को बड़ा दुःख हुआ । श्रावकों ने श्रमणों से प्रार्थना की कि वे अपने बांये स्कन्ध पर कपड़ा (अर्द्धफालक) रखें। भिक्षा ग्रहण करते समय बायें हाथ से कपड़े को आगे की ओर कर दें और दक्षिण हाथ में ग्रहण किये हुए पात्र में भिक्षा ग्रहण करें। सुभिक्ष हो जाने पर इस प्रकार के प्राचरण के लिये प्रायश्चित्त कर लें। श्रावकों की प्रार्थना को समयोचित समझ कर श्रमणों ने स्वीकार कर लिया और अर्द्धफालक एवं दण्ड आदि रखना प्रारम्भ कर किया।
उधर विशाखाचार्य के साथ गये हुए श्रमणों के संघ ने दक्षिण देश में सुभिक्ष होने के कारण ज्ञान, दर्शन, चारित्र का सम्यक रूप से परिपालन करते हुए बारह वर्ष का संक्रान्तिकाल दक्षिणापथ में सुखपूर्वक व्यतीत किया।
उस द्वादशवार्षिक दुभिक्ष की समाप्ति पर सुभिक्ष होते ही विशाखाचार्य ने अपने श्रमण संघ के साथ दक्षिणापथ से मध्यप्रदेश की अोर विहार कर दिया और अनेक क्षेत्रों में विहार करते हुए वे मध्यप्रदेश में आ पहुंचे।
उधर रामिल्ल, स्थूलवृद्ध और स्थूलभद्राचार्य ने दुर्भिक्ष की समाप्ति पर समस्त श्रमण संघ को एकत्रित कर कहा कि दुभिक्ष के दिन व्यतीत हो गये हैं। अतः अब सब मुमुक्षु श्रमरणों को अर्द्धफालक का परित्याग कर निर्ग्रन्थता स्वीकार कर लेनी चाहिये । उनके वचन सुनकर मुक्ति के अभिलाषी कुछ साधुओं ने पुनः निर्ग्रन्थता ग्रहण कर ली । परम वैराग्यशाली रामिल्ल, स्थूलवृद्ध और स्थूलभद्रा. चार्य- ये तीनों विशाखाचार्य के पास आये और भवभ्रमण के भय से संत्रस्त उन तीनों ने दुष्काल के समय ग्रहण किये गये अर्द्धफालक (प्राधे कपड़े) का तत्काल परित्याग कर निर्ग्रन्थ मुनियों का वेष धारण कर लिया। जो साधु कष्टसहन से कतराते थे और जिनका मनोबल दृढ़ नहीं था, उन्होंने जिनकल्प और स्थविर 'रामिल्लः स्थविरः स्थूलभद्राचार्यस्त्रयोऽप्यमी। महावैराग्यसम्पन्ना विशाखाचार्यमाययुः ।।६।। स्यक्त वाकपटं सद्यः संसारात्त्रस्तमानसाः । नैन्थ्यं हि तपः कृत्वा मुनिरूपं दधुस्त्रयः ।।६६।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org