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भद्रबाहु दि० परं०]
श्रुतकेवली - काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु
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परिणामतः शान्त्याचार्य की मृत्यु हो गई और उनकी मृत्यु के पश्चात् विक्रम संवत् १३६ तदनुसार वीर निर्वारण संवत् ६०६ में उनके शिष्यों ने अपने शिथिलाचार अनुसार नवीन शास्त्रों की रचना कर श्वेताम्बर संघ की स्थापना की ।
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वीर निर्वारण संवत् ६०६ में दिगम्बर श्वेताम्बर मतभेद प्रारम्भ हुआ, यह दिगम्बर सम्प्रदाय को सर्वसम्मत मान्यता है अतः उसके आधार पर देवसेन द्वारा प्रस्तुत की गई उपर्युक्त मान्यता को दिगम्बर परम्परा की मान्यता संख्या १ के नाम से अभिहित किया जा सकता है ।
प्राचार्य हरिषेण इससे कुछ आगे बढ़े,
वृहत्कथाकोश
पुनाट संघ के श्री मौनि भट्टारक के प्रशिष्य तथा श्री भरतसेन के शिष्य आचार्य श्री हरिषेण ने विक्रम संवत् ६८६ में निर्मित वृहत् कथाकोश में जो प्राचार्य भद्रबाहु का कथानक ( कथानक संख्या १३१) दिया है, उसका सारांश यहां दिया जा रहा है :
प्राचीनकाल में पुण्ड्रवर्धन राज्य में कोटिपुर नामक एक नगर था जो प्राज कल देवकोट्ट के नाम से प्रसिद्ध है । वहां के राजा पद्मरथ के राज पुरोहित सोमशर्मा की धर्मपत्नी सोमश्री की कुक्षि से भद्रबाहु का जन्म हुआ । बालक भद्रबाहु जब कुछ बड़ा हुआ तो वह अपने समवयस्क बालकों के साथ खेलने लगा । एक दिन नगर के बाहर अपने साथियों के साथ खेलते हुए भद्रबाहु ने बात ही बात में गोली पर गोली चढ़ाते हुए चौदह गोलियों को एक दूसरी पर चढ़ा कर सब खिलाड़ियों को आश्चर्य में डाल दिया ।
उसी समय भगवान् नेमिनाथ की स्तुति करने हेतु उर्जयन्त ( गिरनार ) पर्वत की ओर जाते हुए चौथे चतुर्दश पूर्वधर आचार्य गोवर्धन उस स्थान पर पधारे। उन्होंने बालक भद्रबाहु द्वारा चौदह गोलियों को एक दूसरी पर चढ़ा देने के अद्भुत कौशल को देख कर अपने ज्ञान से जान लिया कि यही प्रतिभाशाली बालक प्रागे चल कर अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर होगा । गोवर्द्धनाचार्य ने भद्रबाहु के पिता को सारा हाल सुना कर उनकी अनुमति से बालक भद्रबाहु को अध्ययन कराने हेतु अपने पास रख लिया और स्वल्प समय में ही सब विद्याओं एवं शास्त्रों मैं उसे पारंगत बना दिया ।
सब विद्याओं में निष्णात होने पर भद्रबाहु गुरु प्राज्ञा से अपने माता-पिता के पास गये परन्तु कुछ ही दिनों पश्चात् वे अपने माता-पिता से दीक्षित होने की प्रज्ञा प्राप्त कर प्राचार्य गोवर्द्धन के पास लौट आये और उनके पास निर्ग्रन्थ धर्म में दीक्षित हो गये । गुरु की कृपा से भद्रबाहु कुछ ही काल में द्वादशांगी के पारगामी विशेषज्ञ श्रुतकेवली बन गये । प्रपने अन्तिम समय में प्राचार्य, गोवर्द्धन ने भद्रबाहु को प्राचार्य पद प्रदान कर दिया और स्वयं कठोर तपश्चरण करते हुए अन्त में अनशन-पूर्वक स्वर्गगमन किया ।
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