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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
[ भद्रबाहु दि० परं०
अपने साधु-संघ के साथ प्राचार्य शान्ति के वल्लभी पहुंचने के पश्चात् वहां पर भी बड़ा भीषण दुष्काल पड़ा। वहां घोर दुष्काल के कारण ऐसी atree स्थिति उत्पन्न हो गई कि भूख से पीड़ित रंक लोग अन्य लोगों के पेट . चोर-चीर कर और उनकी प्रांतों एवं प्रोझरियों में से सद्यभुक्त प्रश्न निकालनिकाल कर खाने लगे ।। ५७ ।।
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इस भयावह स्थिति से मजबूर हो कर प्राचार्य शान्ति के संघ के सभी साधुयों ने कम्बल, दण्ड, तूंबा, पात्र और प्रावरण हेतु श्वेत वस्त्र धारण कर लिये ।। ५८ ।
उन्होंने साधुओं के योग्य आचरण का परित्याग कर दीनवृत्ति से मांगना और बस्तियों में अपनी इच्छानुसार जा जा कर और बैठ बैठ कर भोजन करना प्रारम्भ कर दिया ॥१५६॥
इस प्रकार का श्राचररण करते हुए उनका बहुत सा काल व्यतीत हो गया । अंततोगत्वा दुष्काल का अन्त और सुभिक्ष का प्रादुर्भाव हुआ । तब प्राचार्य शान्ति ने अपने संघ के सभी साधुत्रों को संबोधित करते हुए कहा कि अब इस कुत्सित प्राचरण को छोड़ दो और अपने इस प्राचरण की गर्हा निन्दा कर के ( प्रायश्चित कर के ) पुनः महर्षियों के श्रेष्ठ प्राचरण को ग्रहण करो ।। ६०-६१।।
प्राचार्य शान्ति' की इस बात को सुन कर उनके प्रथम शिष्य ने कहा"अब इस प्रकार के प्रति कंठोर श्राचरण का कौन पालन कर सकता है ? उपवास, भोजन का प्राप्त न होना, प्रसह्य अनेक अन्य प्रन्तराय, एक स्थान, नग्नत्व, मौन, ब्रह्मचर्य, भूमिशय्या, दो-दो मासों के अन्तर से केशों का प्रसह्य कष्टप्रद लुंचन,
तरथ वि गयस्त जायं दुम्भिक्वं दारुणं महाघोरं । जत्य विमारिय उपरं खड़ो रकेहि कुरुति ।। ५७ ।। तं लहिऊरण णिमित्तं गहियं सम्बेहि कम्बलि दंडं । दुद्दियतं च तहा पावत्वं सेयवत्थं च ।। ५८ ।। चतं रिसि प्रावरणं गहिया भिनला य दीबितीए । उबबिसिय जाइऊणं भुतं बसहीसु इच्छाए ।। ५६ ।। एवं वट्टताणं कितिय कालम्मि चावि परिमलिए । संजायं सुम्भिक्वं जंपर ता संति मायरियो ||६०|| प्रावाहिऊण संघ भरिणयं खंडे कुत्थियावरण । लिदिय गरहिय गिण्हह पुणरवि परियं मुणिदारणं ॥ ६१ ॥ विक्रम सं० १३६ ( वीर नि० सं० ३०६ ) से १२ वर्ष पूर्व निमित्तज्ञ भा० भद्रबाहु द्वारा द्वादशवार्षिक goकाल की सूचना मिलने पर शान्ति नामक संघपति के अपने शिष्यों सहित वल्लभी जाने का जो उल्लेख प्रा० देवसेन ने किया है उसमें रामिल्ल, स्थूलाचार्य पौर स्थूलभद्र का कहीं नामोल्लेख तक नहीं किया है।
- सम्पादक
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