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श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु दिगम्बर परम्परा के प्रन्थों में प्रा० भद्रबाहु का परिचय
मावसंग्रह के अनुसार प्राचार्य विमलसेन के शिष्य प्रा० देवसेन' ने दिगम्बर परम्परा के प्रसिद्ध ग्रन्थ भावसंग्रह में श्वेताम्बर परम्परा की उत्पत्ति का विवरण देते हुए गाथा संख्या ५२ से ७५ तक की २४ गाथानों में भद्रबाह नामक प्राचार्य का परिचय दिया है। चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाह के जीवन-चरित्र के विषय में किस प्रकार भ्रान्तियों का श्रीगणेश हुमा, इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिये वे गाथाएं बड़ी सहायक सिद्ध होंगी अतः उन गाथाओं का अविकल अनुवाद यहां प्रस्तुत किया जा रहा है :
राजा विक्रम की मृत्यु के १३६ वर्ष पश्चात सोरठ देश की वल्लभी नामक नगरी में श्वेतपट-श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति हुई ।।५२।।
उज्जयिनी नगरी में भद्रबाहु नामक एक प्राचार्य थे। वे निमित्तशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। अपने निमित्त ज्ञान के बल पर उन्होंने अपने संघ से कहा ॥५३॥
यहां पर निरन्तर १२ वर्ष पयंत भयंकर दुष्काल का प्रकोप रहेगा प्रतः पाप लोग अपने-अपने संघ के साथ अन्यान्य प्रान्तों और क्षेत्रों की पोर चले जाम्रो ॥५४॥
भद्रबाह की यह भविष्यवाणी सुन कर सभी गणनायकों ने अपने-अपने संघ के साथ उज्जयिनी के विभिन्न क्षेत्रों से विहार कर दिया और जिन प्रदेशों में सुभिक्ष था वहां जाकर विचरण करने लगे ॥५५॥
शान्ति नामक एक संघपति अपने बहुत से शिष्यों के साथ सुरम्य सोरठ प्रदेश की वल्लभी नगरी में पहुंचा ॥५६।। ' दर्शनसार के कर्ता देवसेन से भिन्न । इनके काल के सम्बन्ध में प्रभी निश्चित रूप से कुछ
नहीं कहा जा सकता। २ छत्तीसे वरिससए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरठे उप्पण्णो सेवड़संघो हु वल्लहीए ॥५२॥ प्रासी उज्जेणीपयरे मायरियो भद्दबाहु णामेण । जाणिय सुणिमित्तघरो भणिमो संघो णितो तेण ॥५३॥ होहइ इह दुभिक्खं बारह वरसाणि जाव पुण्णारिण । देसंतराए गच्छह रिणय णिय संघेण संजुता ॥५४॥ सोऊण इयं वयणं गाणा देसेहि गणहरा सम्वे । गिय रिणय संघ पउत्ता विहरिमा जत्य सुम्भिवखं ॥५५॥ एक्क पुरण संति णामो संपत्तो वलहीणाम यरीए । बहुसीस सम्पउत्तो विसए सोरट्ठए. रम्मे ॥१६॥
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