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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [दि० ५० की मान्यता कार्य नहीं। इस सम्बन्ध में गहन शोध की आवश्यकता है । एतद्विषयक शोध-कार्य में जो कतिपय तथ्य सहायक सिद्ध हो सकते हैं, उन तथ्यों को यहां रखा जा रहा है :
(१) दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में विष्णूनन्दि को जम्बस्वामी का उत्तराधिकारी (पट्टधर) तो माना गया है पर कहीं पर यह स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है कि वे जम्बूस्वामी के शिष्य थे अथवा और किसी के।
(२) जिस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में जम्बूस्वामी के पट्टधर प्रभवस्वामी का विस्तार के साथ परिचय दिया गया है, उस प्रकार दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में प्रार्य विष्णु का कोई परिचय नहीं दिया गया है।
(३) दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में प्रभव का उल्लेख किया गया है पर श्वेताम्बर परम्परा के एक भी प्राचीन ग्रन्थ में जम्बूस्वामी के उत्तराधिकारी इन विष्णुनन्दि का कहीं नामोल्लेख तक उपलब्ध नहीं होता।
प्राशा है दोनों परम्परामों के विद्वान् इस सम्बन्ध में गहन शोध के पश्चात् समुचित प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे।
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४. प्राचार्य सम्यंभव भगवान् महावीर के तृतीय पट्टधर प्राचार्य प्रभवस्वामी के पश्चात् वीर निर्वाण संवत् ७५ में चतुर्थ पट्टधर प्राचार्य सय्यंभव हुए। पाप वत्स गोत्रीय ब्राह्मण कुल के विशिष्ट विद्वान् थे। २८ वर्ष की वय में प्राचार्य प्रभव स्वामी के उपदेश से प्रभावित होकर, जिस समय सय्यंभव ने श्रमण-दीक्षा ग्रहण की, उस समय उनके परिवार में केवल उनकी युवा पत्नी विद्यमान थी।
अपनी पत्नी को असहायावस्था में छोड़कर सय्यंभव के दीक्षित होने पर नगर के नागरिक बड़े खेद के साथ निश्वास छोड़ते हुए बोले- "भद्र सययंभव जैसा संसार में अन्य कौन इतना वजहृदय होगा जो अपनी युवती, सुन्दरी, सती स्त्री को एकाकिनी छोड़कर संयम-मार्ग का पथिक बना हो। एक पुत्र भी यदि होता तो उस माशालता के सहारे इस युवती का जीवन इतना दूभर नहीं होता।"
बातर्षि मणक उसी दिन पास-पड़ोस की स्त्रियों ने सय्यंभव की पत्नीसे पूछा - "सरले क्या तुम्हें माशा है कि तुम्हारी कुक्षि में भट्ट कुल का कुलप्रदीप मा चुका है ?"
लज्जा से परुणमुखी सययंभव की पत्नी ने अपने अंचल में मुंह छपाने में उपक्रम करते हुए ईषत् स्मित के साथ उस समय की बोलचाल की भाषा में छोट सा उत्तर दिया- "मरणगं" (मनाक) जिसका अर्थ होता है- हां, कुछ है।
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