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दि. परंपरा की मान्यता] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य प्रभवस्वामी
३१५ यह पहले बताया जा चुका है कि दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ उत्तरपुराण (पर्व ७६) में जम्बूस्वामी के शिष्य के रूप में भव नामक मुनि का और पं० राजमल्ल ने 'जम्बूचरितम्' में प्रभव का उल्लेख किया है। जम्बूचरितम् में यह भी बताया गया है कि जम्बूस्वामी के निर्वाण से कुछ दिन पश्चात् पिशाचादि द्वारा दिये गये घोर उपसर्गों के परिणामस्वरूप विद्युच्चर और उसके साथ दीक्षित हुए प्रभव प्रादि ५०० दस्यु राजकुमारों की मृत्यु हो गई और वे सब देव बने । उपरोक्त दोनों ग्रन्थों में इससे अधिक प्रभव का कोई परिचय नहीं दिया गया है। ___ जम्बूस्वामी के पश्चात् भगवान् महावीर के धर्मसंघ के प्राचार्य, आर्य प्रभव बने अथवा प्रार्य विष्णु-अपरनाम नन्दि बने- यह एक बड़ा ही जटिल, महत्त्वपूर्ण और नाजूक प्रश्न है। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् की प्राचार्य परम्परा के सम्बन्ध में प्राय जम्बू तक सचेलक और अचेलक दोनों परम्परामों में प्रायः मतैक्य ही दृष्टिगोचर होता है। इन्द्रभूति गौतम को प्रथम पट्टधर मानने न मानने से कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि उसमें विभेद की कोई गन्ध नहीं पाती। अचेलक परम्परा इन्द्रभूति को प्रथम पट्टधर मानती है तो सचेलक परम्परा उन्हें पट्टधर पद से भी अधिक गरिमापूर्ण गौरव और सम्मान देती है। परन्तु जम्बूस्वामी का उत्तराधिकारी कौन बना इस प्रश्न को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के मतभेद का सूत्रपात होता है। यह मतभेद प्राचार्य विष्णू अपरनाम नन्दि से प्रारम्भ होकर नन्दिमित्र-अपरनाम, नन्दि, अपराजित और प्राचार्य गोवर्धन तक चलता है। अन्तिम श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु को दोनों परम्पराएं समान रूप से अपना अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर प्राचार्य मानती हैं। प्राचार्य भद्रबाह के पश्चात् पुनः यह मतभेद प्रारम्भ होता है और उसके पश्चात् कहीं इन दोनों परम्परामों में एतद्विषयक मतैक्य के दर्शन नहीं होते। कालान्तर में यतिवृषभ के गुरु मार्य मंक्षु और नागहस्ति का काल ही एक ऐसा काल कहा जा सकता है जिसमें ये दोनों परम्पराएं संभवतः एक दूसरी के निकट संपर्क में प्राई हों।
जम्बूस्वामी के उत्तराधिकारी के नामभेद को देखकर अनेक विद्वानों ने अपना यह अभिमत व्यक्त किया है कि संभवतः जम्बस्वामी के निर्वाण के पश्चात ही भगवान् महावीर के धर्मसंघ में श्वेताम्बर मोर दिगम्बर - इस प्रकार के भेद के बीज का वपन हो चुका था। पर उन विद्वानों के इस अभिमत को दोनों परम्पराएं समान रूप से अस्वीकार करती हैं । जम्बूस्वामी के पश्चात् प्राचार्यों के नाम के सम्बन्ध में मतभेद होने के उपरान्त भी न श्वेताम्बर परम्परा इस बात को मानने के लिये तैयार है और न दिगम्बर परम्परा ही कि प्रायं जम्ब के निर्वाण के पश्चात् ही श्वेताम्बर और दिगम्बर - इस प्रकार की दो शाखानों में भगवान महावीर का धर्मसंघ विभक्त हो गया।
इन सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए विचार किया जाय तो यह स्पष्ट हो जायगा कि यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका समाधान करना कोई साधारण
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