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श्वे. परं० परिचय) श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु
गच्छाचार पइन्ना, दोघट्टीवृत्ति यों तो श्वेताम्बर परम्परा के अनेक ग्रन्थों में प्राचार्य भद्रबाह के जीवन की घटनाओं का थोड़ा बहुत उल्लेख उपलब्ध होता है पर गच्छाचार पइन्ना की गाथा संख्या ८२ की टीका में प्राचार्य भद्रबाहु का गृहस्थ जीवन से लेकर स्वर्गारोहण तक का थोड़े विस्तार के साथ जीवन-परिचय दिया हुआ है । उसका सारांश इस प्रकार है :
___“परम समृद्ध महाराष्ट्र प्रदेश में श्रीप्रतिष्ठान नामक एक नगर था। वहाँ चतुर्दश विद्याओं में पारंगत, षट्कर्ममर्मज्ञ और प्रकृति से भद्र एक भद्रबाहु नामक ब्राह्मण रहता था। उसके सहोदर का नाम वराहमिहिर था, जो उसे परमप्रिय था। एक दिन वहां चतुर्दशपूर्वधर एवं महान् तत्वज्ञ याचार्य श्रीयशोभद्रस्वामी का.पधारना हुआ।
__यशोभद्रस्वामी के परमवैराग्योत्पादक उपदेश को सुनकर पंडित भद्रबाहु को संसार में विरक्ति हो गई। उन्होंने अपने अनुज वराहमिहिर से कहा"वत्स ! मुझे भवभ्रमण से विरक्ति हो गई है अतः मैं इन गुरुदेव की चरणशरण में दीक्षित हो निर्दोष संयम का पालन करना चाहता हूं। तुम घर लौट कर सावधानीपूर्वक अपने घर का कार्य सम्हालो।"
इस पर वराहमिहिर ने उत्तर दिया- "भैया ! आप यदि संसार सागर को तैर कर पार करना चाहते हैं, तो फिर मैं टूटी हुई नैया के नाविक की तरह भवाब्धि में क्यों डूबूंगा? शर्करामिश्रित खीर यदि ब्राह्मण को मीठी लगती है, तो क्या वह ब्राह्मणेतर जनों को मीठी नहीं लगेगी ?"
भद्रबाहु ने यह सोच कर कि यह कहीं भवाटवी में भटकता ही न रह जाय, वराहमिहिर को अपने साथ प्रवजित होने की अनुमति प्रदान कर दी और दोनों भाई समर्थ प्राचार्य यशोभद्रस्वामी के पास प्रवजित हो गये। ज्ञान और चारित्र की शिक्षा ग्रहण कर भद्रबाहु ने अपने गुरु के पास क्रमशः मूल, अर्थ और रहस्य सहित द्वादशांगी का अध्ययन किया और वे चतुर्दशपूर्वधर हो समस्त श्रमण संघ में चूड़ामणि की तरह सुशोभित होने लगे।
प्राचार्य यशोभद्रसूरि के प्रमुख शिष्य का नाम आयं संभूतविजय था, जो चतुर्दश पूर्वघर और अनुपम चारित्रवान् थे। अपने जीवन का अन्तिम समय सनिकट समझ कर प्राचार्य यशोभद्रसूरि ने अपने दोनों सुयोग्य प्रौर श्रुतकेवली शिष्यों-संभूतविजय और भद्रबाहु को अपने उत्तराधिकारी के रूप में प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठापित कर संलेखना की और कुछ दिनों पश्चात् समाधिपूर्वक स्वर्गगमन किया।
___प्राचार्य यशोभद्र के स्वर्गारोहण के पश्चात् संभूतविजय पौर भद्रबाहु-ये दोनों प्राचार्य चन्द्र और सूर्य की तरह अपनी ज्ञानरश्मियों से प्रज्ञान-तिमिर का नाश करते हुए अनेक क्षेत्रों में विचरण करने लगे।
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