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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [श्वे. परं० परिचय विचित्र है, जो तुमने अपने हाथ से कल्पवृक्ष बोया था, उसे मदोन्मत्त हाथी की तरह एक ही क्षण में उखाड़ कर फेंक दिया।"
राजा और प्रजा-सभी यह जानने को उत्सुक थे कि किस की भविष्यवाणी सत्य निकलती है । पुरोहितपुत्र की मृत्यु का समाचार तत्क्षण वन में लगी अग्नि की तरह सारे नगर में फैल गया। प्रतिष्ठानपुर के नरेन्द्र ने वराहमिहिर के घर पहुंच कर उसे शान्त किया और कहा- "महामुनि भद्रबाहु ने बालक के मरण की बात कही, वह तो सत्य सिद्ध हो गई पर उन्होंने जो मरण का हेतु बताया था वह सम्भवतः सत्य नहीं निकला है।"
धात्री से बालक की मृत्यु का कारण पूछा गया तो उसने रोते हुए उस प्रर्गला को उठा कर महाराज के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया । अर्गला के मुख पर उत्कीर्ण की हुई विडाल की प्राकृति को देख कर महाराज पाश्चर्याभिभूत हो बारम्बार प्राचार्य भद्रबाहु की महिमा करते हुए कहने लगे- "धन्य है इन सर्वज्ञतुल्य श्वेताम्बर महामुनि की अद्भुत ज्ञान-गरिमा मीर उनके सत्य भविष्य-कथन को।"
भविष्यवाणी की शतप्रतिशत सत्यता से चमत्कृत हो प्रतिष्ठानपुरपति तत्काल वराहमिहिर के घर से प्रस्थान कर प्राचार्य भद्रबाहु की सेवा में पहुंचे और उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम कर पूछा - "भगवन् ! पुरोहित के वचन किस कारण से भूठ सिद्ध हुए ?"
उत्तर में प्राचार्य भद्रबाह ने फरमाया- "राजन ! उस गुरुद्रोही ने व्रतों को ग्रहण कर के भी अपनी प्रतिज्ञा को भंग कर प्रापका पौरोहित्य स्वीकार कर लिया। इसी कारण उसके वचन प्रसत्य सिद्ध हुए । राजन् ! जो वचन सर्वश प्रभु द्वारा प्रणीत है वह तो युग-युगान्तर में भी सत्य ही सिद्ध होता है।" भद्रवाह स्वामी की बात सुन कर प्रतिष्ठानपति को वास्तविक तथ्य का बोध हो गया
और वे पश्चात्ताप भरे स्वर में भद्रबाहु स्वामी से निवेदन करने लगे-- "महामुने! मैंने मिथ्यात्वरूपी धतूरे के नशे में चूर हो संसार की सब वस्तुओं को स्वर्णमय समझते हुए अपना निश्शेष मनुष्य जीवन व्यर्थ ही खो दिया । प्रभो! अब प्राप मुझे कुपा कर ऐसी शिक्षा दीजिये, जिससे में कृतकृत्य हो सकू।"
राजा की प्रार्थना पर भद्रबाहु ने उसे दुर्गतिनिवारण कल्याणकारी सच्चे धर्म का उपदेश दिया, जिसे राजा ने हृदयंगम एवं शिरोधार्य करते हुए पुरोहित के मत का परित्याग कर जैन धर्म स्वीकार किया।
इस दुःखद घटना के पश्चात् लोग वराहमिहिर का उपहास करने लगे और वह भी पुत्रमरण के शोक एवं लोगों में फैली अपनी अपकीति के कारण संसार से विरक्त हो परिव्राजक बन गया। वह प्रज्ञानवश केवल काया को क्लेश पहुंचाने वाला तप करने लगा और अन्त में अपने अन्तर के पाप-शल्य का प्रायश्चित्त किये बिना ही मर कर हीन ऋद्धि वाला वाणव्यन्तर देव हुमा । उसने विभंगज्ञान से अपने पूर्वभव का वृत्तान्त ज्ञात कर जिनशासन से अपने पूर्ववर का
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