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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [श्वे० परं० परिचय उधर वह अल्पमति वराहमिहिर मुनि चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि कुछ ग्रन्थों का अध्ययन कर अहंकार से अभिभूत हो प्राचार्य-पद प्राप्त करने की अभिलाषा करने लगा। किन्तु आचार्यद्वय ने अपने ज्ञान बल से उसे इस पद के अयोग्य समझा और :
बूढो गणहरसद्दो, गोयममाईहिं धीरपुरिसेहिं ।
जो तं ठवइ अपत्ते, जारणंतो सो महापावो ।। अर्थात् – गणधर जैसे गरिमामय पद को गौतम आदि धीर-गम्भीर महापुरुषों ने वहन किया है। ऐसे महान पद पर यदि कोई जानबूझ कर किसी अपात्र को नियुक्त कर देता है, तो वह घोरातिघोर पाप का भागी होता है।
इस प्राप्तवचन को ध्यान में रखते हुए उन्होंने वराहमिहिर को गणधर पद का अधिकारी नहीं बनाया। इसके परिणामस्वरूप मुनि वराहमिहिर मन ही मन अपने ज्येष्ठ भ्राता आचार्य भद्रवाहु के प्रति घोर विद्वेष रखने लगा और उसने इसे अपना घोर अपमान समझ कर सदा के लिये उनका साथ छोड़ने का निश्चय कर लिया। तीव्र कषाय और मिथ्यात्व के उदय से उसने बारह वर्ष के साधु-जीवन का परित्याग कर पुनः गार्हस्थ्य जीवन स्वीकार कर लिया। चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि प्रागमग्रन्थों से सार ग्रहण कर उसने वराहीसंहिता नामक सवालक्ष पद प्रमारण ज्योतिष ग्रन्थ की रचना की। वह द्रव्यानुयोग एवं अन्य अंगोपांगों में से मंत्र ग्रहण कर, उनके प्रयोग से धनी-मानी लोगों का मनोरंजन करने लगा।
___ वराहमिहिर ने सर्वत्र सम्मान पाने की अभिलाषा से अपने भोले भक्त लोगों के माध्यम से इस प्रकार का मिथ्या प्रचार करना प्रारम्भ किया कि वह १२ वर्ष तक सूर्यमण्डल में रह कर पाया है। वहां स्वयं सूर्य भगवान् ने समस्त ग्रहमण्डल के उदयास्त, गति, स्थिति, फल आदि को प्रत्यक्ष दिखा-दिखा कर उसे ज्योतिष-विद्या की सम्पूर्ण शिक्षा प्रदान की। ज्योतिष-विद्या में पारंगत वना कर सूर्य भगवान ने उसे मर्त्यलोक में भेजा है। सूर्यमण्डल से पृथ्वी पर पाकर उसने ज्योतिष-शास्त्र की रचना की है।
धूर्त भक्तों के माध्यम से यह कपोलकल्पित कथानक लोगों में शीघ्र ही फैल गया और इस प्रकार वराहमिहिर की सर्वत्र वड़ी प्रतिष्ठा होने लगी। इस प्रकार की लोकप्रसिद्धि से प्रभावित हो प्रतिष्ठानपुर के महाराजा ने वराहमिहिर को अपने राजपुरोहित के पद पर प्रतिष्ठापित कर दिया। राज्य से प्रतिष्ठा पाने के अनन्तर तो वराहमिहिर की कीर्ति दिग्दिगन्तव्यापिनी हो गई।
उन्हीं दिनों विविध क्षेत्रों के भव्यजनों को जिन-वचनामृत से तृप्त करते हुए प्राचार्य भद्रबाह प्रतिष्ठानपुर के बहिस्थ उद्यान में पधारे। उनके प्रागमन का समाचार सुनकर प्रतिष्ठानपुर के नरेन्द्र अपने पुरजन परिजन सहित उनका वन्दन एवं उपदेश श्रवण करने हेतु उद्यान में पहुंचे। राजपुरोहित वराहमिहिर
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