________________
श्वे. परं० परिचय] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु
३३३ बदला लेने की ठानी और जनसंघ को अनेक प्रकार के घोर उपसर्ग दिये । व्यन्तरकृत उपसर्गों को अपने ज्ञानबल से जान कर प्राचारनिष्ठ श्रमणों ने भद्रबाहु स्वामी को सारी स्थिति से अवगत कराया।
भद्रबाह स्वामी ने श्रमरणसंघ के कष्ट का निवारण करने हेतु महान् चमत्कारी "उवसग्गहर स्तोत्र" की रचना कर उसका पाठ स्वयं ने भी किया और समस्त श्रमणसंघ से भी उस स्तोत्र का पाठ करवाया। उस स्तोत्र के प्रभाव से व्यंतरकृत सारा उपद्रव सदा के लिये शान्त हो गया।
युगप्रधान प्राचार्य भद्रबाहु ने प्राचारांग आदि दश सूत्रों पर नियुक्तियों की रचना कर जिनशासन की बड़ी प्रभावना की और पंचम तथा अन्तिम श्रतकेवली के रूप में प्राचार्यपद का वहन करते हुए अन्त में अनशनपूर्वक स्वर्गारोहण किया।'
प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार प्रबन्ध चिन्तामणि नामक ग्रन्थ में भद्रबाहु और वराहमिहिर का जो परिचय उल्लिखित है वह गच्छाचार प्रकीर्णक की टोका में दिये गये परिचय से लगभग मिलता-जुलता ही है। (प्रबन्ध चिन्तामरिण में) जो विभिन्नता है, वह इस प्रकार है
(१) इसमें वराहमिहिर को पाटलीपुत्र का निवासी, भद्रबाहु का ज्येष्ठ भ्राता और राजा नन्द द्वारा प्रतिष्ठाप्राप्त नैमित्तिक बताया गया है।।
(२) इसमें उल्लेख है कि वराहमिहिर को, पुत्रजन्मोत्सव के समय उसके घर पर जन-साधारण से लेकर स्वयं नन्दराजा के उपस्थित होने पर भी अपने छोटे भाई भद्रबाहु का न आना बड़ा खटका और उसने श्रद्धालु श्रावक शकडाल को भद्रबाहु की अनुपस्थिति के लिये उपालम्भ दिया। शकडाल मंत्री द्वारा वराहमिहिर की अप्रसन्नता की बात सुनकर भद्रबाह ने कहा कि दो बार कष्ट करने की क्या आवश्यकता है ? जिस नवजात शिशु की वराहमिहिर भ्रमवश सौ वर्ष की आयु बता रहा है, वह वस्तुतः बीसवें दिन बिलाव से मृत्यु को प्राप्त हो जायगा । शकडाल मंत्री के मुख से भावी संकट की सूचना पाकर वराहमिहिर ने बालक की सुरक्षा का समुचित प्रबन्ध किया किन्तु कपाट की लोहार्गला जिस पर कि विडाल की प्राकृति अंकित थी, के गिरने से बालक की बीसवें दिन मृत्यु हो गई।
प्रबन्ध चिन्तामणि में वराहमिहिर के दीक्षित होने, १२ वर्ष तक श्रामण्यपर्याय के पालन करने, प्राचार्यपद न मिलने के कारण रुष्ट हो श्रमणत्व का - "भत्यि सिरिभरवरिठे..."
पहजुगुप्पहाणागमो सिरिभद्दबाहुस्वामी-पापारंग (१), सूयगडंग (२), पावस्सय (३), दसर्वयालिय (४), उत्तरज्झयण (५), दसा (६), कप्प (७), ववहार (८), सूरियपन्नति उवंग (६), रिसिभासियारणं (१०), दस निज्जुत्तीपो काऊण जिग्णसासरणं पंचमसुयकेवलियपयमणुहविऊरण य समए प्रणसणविहाणणं तिदसावासं पत्तो ति ।"
[गच्छाचार पइण्णा, २ अधि० व कल्प]
..
..........
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org