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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [बालर्षि मरणक' प्रसन्नता हुई। उसने मुनि के पास पहुंच कर बड़े विनय से उन्हें वन्दन किया। मुनि भी कमल- नयन सुन्दर प्राकृति वाले बालक को देखकर सहज स्नेह भरी दृष्टि से उसकी ओर देखने लगे। एक दूसरे को देखकर अनायास ही दोनों के हृदय में प्रानन्द की मियां तरंगित होने लगीं।
बालक द्वारा वन्दन किये जाने के पश्चात् प्राचार्यश्री ने स्नेह-गद्गद् स्वर में बालक से पूछा- "वत्स ! तुम कौन हो, किसके पुत्र हो, कहां से आये हो और कहां जा रहे हो?"
उत्तर में बालक मणक ने मधुर स्वर में कहा - "देव ! मैं राजगृह नगर निवासी वत्स गोत्रीय ब्राह्मण सय्यंभव भट्ट का पुत्र हूं। मेरा नाम मणक है। मैं जिस समय माता के गर्भ में था, उसी समय मेरे पिता घर-द्वार और मेरी माता के स्नेहसूत्र को तोड़कर श्रमण-धर्म में दीक्षित हो गये। मैं राजगृह नगर से उन्हें अनेक नगरों और ग्रामों में ढूंढता हुमा यहां आया हं। भगवन् यदि ! आप मेरे पिताजी को जानते हों तो कृपा कर मुझे बताइये कि वे कहां हैं ? मुझे यदि वे एक बार मिल जायं तो मैं उनके पास प्रवज्या ग्रहण कर सदा के लिये उन्हीं के चरणों की सेवा में रहना चाहता हूं।"
बालक मणक के मुंह से यह सुनकर प्राचार्य सय्यंभव की मनोदशा किर प्रकार की रही होगी, यह केवल अनुभवगम्य ही है।
समुद्र के समान गम्भीर प्राचार्य सययंभव ने प्रदर्भत धैर्य के साथ स्नेह सनी निगूढ़ भाषा में कहा - "मायुष्मन् वत्स ! मैं तुम्हारे पिता को जानता हूं। वे केवल मन से ही नहीं अपितु तन से भी मुझ से अभिन्न हैं । तुम मुझे उनके तुल्य ही समझ कर मेरे पास प्रवज्या ग्रहण कर लो।"
मणक सय्यंभवसूरि के साथ हो लिया और सूरि उसे अपने साथ लेकर माश्रय स्थान की ओर लौटे।
उपाश्रय में माने पर बालक मणक को जब अन्य मुनियों से यह ज्ञात हुम्रा कि जिनके साथ वह जंगल से उपाश्रय में पाया है, वे ही प्राचार्य सय्यंभव हैं, तो अपने प्रान्तरिक प्रानन्दातिरेक को बिना किसी पर प्रकट किये वह मन ही मन बड़ा प्रमुदित हुमा । भक्तिविह्वल एवं हर्षविभोर हो वह अपने पिता के चरणों पर गिर कर प्रार्थना करने लगा- "भगवन् ! मुझे शीघ्र ही श्रमण-दीक्षा प्रदान कीजिये, अब मैं मापसे पृषक नहीं रहूंगा।"
बालक मणक की प्रबल भावना देखकर प्राचार्य सय्यंभव ने भी उसे सम्पूर्ण सावख-विरतिरूप श्रमणधर्म की दीक्षा प्रदान कर दी। बालक मणक जो कल तक खेलकूद में प्रमोद मान रहावा, पाष एक बालर्षि के रूप में मुक्तिपथ का सच्चा पपिक मन मया । प्राक्तम संस्कारों का कितना जबरदस्त प्रभाव है कि उपदेश और रेखा का भी प्रावश्यकता नहीं पड़ी?
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