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३२२ - जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [सय्यंभव का स्व. अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और अनशन एवं समाधिपूर्वक वीर निर्वाण संवत् ६८ में ६२ वर्ष की आयु पूर्ण कर आपने स्वर्गगमन किया।
दिगम्बर मान्यता दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों एवं पट्टावलियों में सय्यंभव के स्थान पर नन्दिमित्र को प्राचार्य माना गया है। प्राचार्य नन्दिमित्र का भी दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता।
५. प्राचार्य यशोभद्र स्वामी
प्राचार्य सय्यंभव के पश्चात् भगवान् महावीर के पंचम पट्टधर श्री यशोभद्र स्वामी हुए। आपका विस्तृत जीवन-परिचय उपलब्ध नहीं होता । नन्दी स्थविरावली और युग प्रधान पट्टावली आदि में जो थोड़ा बहुत पग्निय प्राप्त होता है, उसके आधार पर यहां भी संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है :
प्रापका जन्म तंगियायन गोत्रीय याज्ञिक ब्राह्मण परिवार में हमा। आपने अपना अध्ययनकाल पूर्ण कर जब तरुण अवस्था में प्रवेश किया, तब सहसा प्राचार्य सय्यंभव के सत्संग का प्रापको सुयोग मिला । प्राचार्य सय्यंभव की त्यागविराग भरी वाणी सुन कर यशोभद्र की सोई हुई आत्मा जग उठी। उनके मन का मोह दूर हुआ और वे २२ वर्ष की भर तरुण अवस्था में सांसारिक मोहमाया का परित्याग कर प्राचार्य सय्यंभव के पास दीक्षित हो मुनि बन गये । १४ वर्ष तक निरंतर गुरु-सेवा में ज्ञान-ध्यान की साधना करते हुए यशोभद्र ने चतुर्दश पूर्वो का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया और गुरु-प्राज्ञा से अनेक प्रकार की तपस्या करते हुए वे विधिवत् संयम धर्म का पालन करते रहे ।
वीर नि० सं० ६८ में प्राचार्य सय्यंभव के स्वर्गारोहण के पश्चात् प्राप युगप्रधान प्राचार्यपद पर आसीन हुए । ५० वर्ष तक प्राचार्य पद पर रह कर जिनशासन की अनुपम सेवा करते हुए आपने वीतराग मार्ग का प्रचार एवं प्रसार किया। वीर निर्वाण सं० १४८ में अपने पश्चात् श्री संभूतविजय तथा भद्रवाह को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर पाप समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण कर स्वर्ग सिधारे।'
प्राचार्य यशोभद्र स्वामी ने अपने प्राचार्यकाल में अपने प्रभावशाली उपदेशों से बड़े-बड़े याज्ञिक विद्वानों को प्रतिबोध दे कर जैनधर्मानुरागी बनाया । यह , मेधाविनी भद्रबाहसम्भूतविजयो मुनी। · · चतुर्दशपूर्वधरो. तस्य शिष्यो बभूवतु : ।।३।।
सूरि श्रीमान्यशोभद्रः, श्रुतनिध्योस्तयोदयोः । स्वमाचार्यकमारोप्य, परलोकमसापयत् ॥४॥
[परिशिष्टपर्व, सर्ग १]
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