________________
दशवकालिक] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य सयंम्भव स्वामी
३२१ ३. क्षुल्लकाचार नामक तृतीय अध्ययन में साधु के लिये अनाचरणीय कार्यों की तालिका दी गई है।
४. पड्जीवनिकाय नामक चतुर्थ अध्ययन में छः प्रकार के जीवनिकाय का संक्षिप्त स्वरूप और उनकी रक्षा हेतु यतना का निर्देश दिया गया है ।
५. पिंडैषणा नामक पंचम अध्ययन में मुनियों की प्राहारविधि एवं भिक्षाविषयक अन्य नियमों का विवेचन दो उद्देशकों द्वारा किया गया है।
६. धर्मार्थकाम नामक छठे अध्ययन में साधु के आचार धर्म का वर्णन करते हुए १८ स्थानों के वर्जन का उपदेश दिया गया है।
७. वचनशुद्धि नामक सातवें अध्ययन में वाणी और भाषा के भेदों का विशद् वर्णन कर प्रसत्य एवं दोषपूर्ण भाषा से बचकर सत्य और निर्दोष वाणी बोले यह बताया गया है।
८. प्राचार प्रणिधान नामक अष्टम अध्ययन में मुनियों के प्राचारों का वर्गीकरण सन्निहित है।
६. विनयसमाधि नामक नवम अध्ययन में चार उद्देशकों से विनय धर्म की शिक्षा दी गई है तथा (१) विनयसमाधि, (२) श्रुतसमाधि, (३) तपसमाधि और (४) माचारसमाधि रूप से समाधि के चार कारण बतलाये हैं।
१०. "सः भिक्षु" नामक दशम अध्ययन में - साधु-जीवन का अधिकारी कोन है, किस प्रकार सिद्धि प्राप्त की जा सकती है, इसका माध्यम क्या है मादि आदर्श साधु-जीवन का सुन्दर विश्लेषण सारगर्भित एवं सीमित शब्दावलि में प्रस्तुत किया गया है।
शवकालिक सूत्र पर नैमित्तिक प्राचार्य भद्रबाहस्वामी (श्रतकवली भद्रबाहु से भिन्न) द्वारा रचित नियुक्ति के अतिरिक्त अनेक महत्त्वपूर्ण टीकाएं और वृत्तियां प्राज भी उपलब्ध हैं। प्रात्मधर्म का जितना सुन्दर, व्यवस्थित और सर्वांगपूर्ण विवेचन दशवकालिक में उपलब्ध है, उतना अन्यत्र एक ही स्थान में उपलब्ध नहीं होता। समस्त श्रुतसागर के विलोडन के पश्चात् प्राचार्य सय्यंभव ने इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रागम का गुंफन किया। इस सूत्र के अध्ययन और मनन को अपने दैनिक जीवन में प्रमुख स्थान देकर मणक मुनि ने अतीव स्वल्पतरे समय में दुस्साध्य मुनिधर्म का सम्यक् रीति से पाराषन किया और प्राध्यात्मिक पथ पर अद्भुत प्रगति करते हुए स्वर्गगमन किया।
प्राचार्य सम्यंमव का स्वर्गगमन प्राचार्य सय्यंभव ने २८ वर्ष की युवा अवस्था में (वी० नि० सं० ६४ में) दीक्षा ग्रहण की । वे ११ वर्ष तक सामान्य साधु रहे और २३ वर्ष तक युगप्रधानप्राचार्य पद पर रहकर उन्होंने महावीर के धर्मशासन की बड़ी तत्परता से सेवा की। मन्त में अपना आयुकाल सनिकट समझकर अपने प्रमुख शिष्य यशोभद्र को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org