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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [महेश्वरदत्त का पाख्यान दृष्टान्त के निष्कर्ष को समझाते हए जम्बूकूमार ने कहा - "प्रभव ! लोकाचार की तो वस्तुतः इस प्रकार की स्थिति है। अज्ञानान्धतम से आवृत्त मन वाले प्राणी ही इसे प्रमाणभूत मान कर प्रकरणीय कार्यों में प्रवृत्ति और करने योग्य कार्यों में निवृत्ति रखते हैं। परन्तु जिनके हृदय में ज्ञान का विमल प्रकाश हो चुका है, वे लोग कभी ऐसे कार्यों में प्रवृत्त नहीं होते ।
यह संसार दुःखों से प्रोत-प्रोत है, इस बात को जो प्राणी अनुभव करता है, उसे चाहिये कि वह संसार के समस्त प्रपंचों का परित्याग कर मोक्षप्राप्ति के लिये अपनी पूरी शक्ति लगा कर निरन्तर प्रयत्न करता रहे।"
सुख के वास्तविक स्वरूप को समझने की जिज्ञासा लिये प्रभव ने जम्ब कुमार से अन्तिम प्रश्न किया - "स्वामिन् ! विषयसुख में और मुक्तिसुख में क्या अन्तर है ?
जम्बूकूमार ने उत्तर दिया- "प्रभव ! मुक्ति का सुख अनिर्वचनीय और निरुपम है। उसमें क्षणमात्र के लिये भी कभी कोई बाधा व्यवधान नहीं पाता इसलिये वह अव्यावाध है, उसका कोई छोर नहीं, उसकी कभी कहीं परिसमाप्ति नहीं प्रतः वह अनन्त है और देवताओं के सुख से भी वह अनन्तगुना अधिक है, जिसका. वर्णन नहीं किया जा सकता इसलिये वह अनिर्वचनीय है।
विषयजन्य तथाकथित सुख वस्तुतः सुख नहीं है, वह तो सुख की कल्पना और विडम्बनामात्र है। प्रशन, पान, विलेपन आदि का उपभोग करते समय सुख की कल्पना करता हुआ मानव वस्तुतः दुखों को ही निमन्त्रण देता है । अनुभवियों ने ठीक ही कहा है कि भोग में रोग का भय है।"
दुःख में सुख की कल्पना करने विषयक एक दृष्टान्त सुनाते हुए जम्बूकुमार ने कहा :
परिणकका दृष्टान्त "एक समय एक व्यापारी माल से कई गाड़े भर कर सार्थ के साथ देशान्तर जाता हुआ एक विकट अटवी में पहुंचा। उस व्यापारी ने मार्ग में लेन-देन की मुविधा की दृष्टि से एक खच्चर पर खरीज (रेजगी, फुटकर सिक्के) से भरा एक वोरा लाद रखा था। जंगल में पहुंचते-पहुंचते फुटकर सिक्कों से भरा वह वोरा किसी तरह फट गया । परिणामत: बहुत से पैसे मार्ग में ही बिखर गये। ज्ञात होने पर उस व्यापारी ने अपने सभी गाडों को रोक दिया और राह में विखरी हई रेजगी को अपने प्रादमियों की सहायता से वीनने लगा। सार्थ के रक्षकों ने उस व्यापारी से कहा - "क्यों कौड़ियों के बदले में करोड़ों की सम्पत्ति को खतरे में डाल रहे हो? यहां इस भयावह वन में चोरों का बड़ा अातंक है अतः गाड़ों को शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ने दो।"
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