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जैन धर्म का मौलिक इतिहास- द्वितीय भाग [ महेश्वरदत्त का प्राण्यान
कारण मर कर उसी नगर में महिष की योनि में उत्पन्न हुग्रा और महेश्वरदत्त की माता भी पतिवियोग के शोक से सन्तप्त हो चिन्तावस्था में काल कर उसी नगर में कुतिया के रूप में उत्पन्न हुई ।
महेश्वरदत्त की युवा पत्नी गांगिला अपने घर में किसी वृद्धा का अंकुश न रहने के कारण स्वेच्छाचारिणी बन गई। एक दिन उसने एक सुन्दर युवक पर ग्रासक्त हो उसे रात्रि के समय अपने घर श्राने का संकेत किया । संध्याकाल के पश्चात् गांगिला द्वार पर खड़ी हो अपने प्रेमी की प्रतीक्षा करने लगी। कुछ ही क्षणों की प्रतीक्षा के अनन्तर सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत एवं शस्त्र धारण किये हुए वह जार पुरुष अपनी प्रतीक्षा में खड़ी गांगिला के पास पहुंचा। संयोगवश उसी समय महेश्वरदत्त भी उन दोनों प्रेमी एवं प्रेमिका के मिलनस्थल पर जा पहुंचा । जारपुरुष ने अपने प्रारणों को संकट में देख कर महेश्वरदत्त को मार डालने के उद्देश्य से उस पर तलवार का घातक वार किया। पर महेश्वरदत्त ने पटुतापूर्वक अपने आपको उसके प्रहार से बचाते हुए उस जारपुरुष को अपनी तलवार के प्रहार से ग्राहत कर दिया । घातक प्रहार के कारण वह जारपुरुष कुछ ही कदम चल कर लड़खड़ाता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। जारपुरुष ने अपने दुष्कृत्य के लिये पश्चात्ताप करते हुए विचार किया - "मेरे जैसे प्रभागे को अपने दुराचार का तात्कालिक फल प्राप्त हो गया ।" सरल भाव से श्रात्मालोचन करते हुए उसकी मृत्यु हो गई और वह गांगिला के गर्भ में आया । गांगिला ने समय पर उसे पुत्र रूप में जन्म दिया। इस प्रकार महेश्वरदत्त का शत्रु वह जारपुरुष महेश्वरदत्त का लाडला लाल बन गया । महेश्वरदत्त उसे अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करने लगा ।
कालान्तर में महेश्वर दत्त ने अपने पिता का श्राद्ध करने का विचार किया और कुल परम्परानुसार उसने एक भैंसा खरीदा। संयोग की बात कि उसका पिता मर कर जिस भैंसे के रूप में उत्पन्न हुआ था वही भैंसा उसने खरीदा । उसने उस भैंसे को मार कर उसके मांस से तैयार की हुई भोज्य सामग्री से अपने पिता के श्राद्ध में ग्रामन्त्रित लोगों को भोजन खिलाया । श्राद्ध के पश्चात् दूसरे दिन महेश्वरदत्त मद्यपान के साथ उस भैंसे के मांस को बड़ी रुचिपूर्वक खाने लगा । वह अपनी गोद में बैठे हुए उस जार के जीव-अपने पुत्र को महिष-मांस के टुकड़े खिला रहा था और पास ही में कुतिया के रूप में बैठी हुई अपनी मां को लाठी से मार रहा था। उसी समय एक मुनि भिक्षार्थ भ्रमरण करते हुए महेश्वरदत्त के घर में आये ।
मुनि ने महेश्वरदत्त को प्रतिप्रसन्न मुद्रा में महिषमांस खाते, को पुत्र दुलार करते और कुतिया को मारते देखा । मुनि अपने अवधिज्ञान से वस्तुस्थिति को जान कर मन ही मन विचार करने लगे - " अहो ! अज्ञान की कैसी विडम्बना है । अज्ञान के कारण इस मानव ने अपने शत्रु को तो गोद में ले रखा है, मां को पीट रहा है और अपने पिता के श्राद्ध में अपने पिता के जीव को ही मार कर
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