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महेश्वरदत्त का पाख्यान ] श्रुतकेवलीःकाल : प्राचार्य प्रभवस्वामी स्वयं खाता है और अन्य लोगों को भी खिलाता है।" वे 'अहो अकार्य' कह कर घर के द्वार से ही लौट गये ।
महेश्वरदत्त ने अपने मन में विचार किया कि मुनि बिना कुछ लिये ही "अहो अकार्य" कह कर घर के द्वार से ही लौट रहे हैं, क्या कारण है ? मुनि से इसका कारण पूछना चाहिये, ऐसा सोच कर वह मुनि को खोजता हमा उस स्थान पर पहुंचा जहां वे ठहरे हुए थे। महेश्वरदत्त ने मुनि को प्रणाम कर उनसे अपने घर से बिना भिक्षा लिये ही "अहो प्रकार्य" कह कर लौट माने का कारण पूछा।
साधु ने उत्तर दिया - "भव्य ! मांसभोजियों के ग्रहों से, जहां मर्यादा का विचार न हो, भिक्षा ग्रहण करना हम श्रमणों के लिये कल्पनीय नहीं है।' मांसाशन नितान्त हिंसापूर्ण और जुगुप्सनीय है प्रतः मांसभोजी कुलों में मैं भिक्षा ग्रहण नहीं करता । फिर तुम्हारे घर में तो............।
अपने अन्तिम वाक्य को अपूर्ण छोड़ कर ही मुनि मौनस्थ हो गये। महेश्वरदत्त ने मुनि के चरणों में अपना मस्तक रखते हुए बड़े अनुनय-विनय के साथ वास्तविक तथ्य बताने की प्रार्थना की। इस पर मुनि ने अपने प्रवषिशान द्वारा जाना हुमा महेश्वरदत्त के पिता, माता, जारपुरुष, महिष, कुत्ती और पुत्र का सारा वृत्तान्त सुना दिया।
महेश्वरदत्त ने कहा- "भगवन् ! आपने जो कुछ कहा, वह सत्य है पर क्या इन तथ्यों की पुष्टि में आप कोई प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हैं ?" मुनि ने कहा- "कुतिया को तुम अपने भण्डार-कक्ष में ले जामो, उसे वहां जातिस्मरण ज्ञान हो जायगा और वह अपने पंजों से प्रांगन खोद कर रत्नों से भरा कलश बता देगी। - मुनि के कथनानुसार महेश्वरदत्त कुतिया को अपने घर के भण्डारकक्ष में ले गया। वहां जाते ही उसे पूर्वजन्म का स्मरण हो पाया और उसने अपने पंजों से कच्चा प्रांगन खोद कर रत्नों से भरा चरू बता दिया।
मनि द्वारा प्रति निगढ रहस्यों का प्रमाणपुरस्सर अनावरण हो जाने पर महेश्वरदत्त को संसार से विरक्ति हो गई। उसने उन्हीं अवधिज्ञानी मुनि के.पास श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण कर अपना उद्धार किया। 'किन गृहीता भिक्षा भगवन्, मुनिराह कल्पतेऽस्माकं । न खलु पिशिताशिवेश्मनि, महेश्वर : प्राह को हेतु : ॥२७८।।
जिम्बूचरित्र, रलप्रभसूरिकत] १ तेन न भिक्षे भिक्षां, मांसाशिकुलेष्वहं जुगुप्सावान् ।
भवतो गृहे विशेषादित्युक्त वा स स्थितस्तूष्णीम् ।।२८३॥ (वही) अन्तर्गृहं शुनी नीता, जातजातिस्मृतिः सती । रत्नजातं तदेषा तमिलातं दर्शयिष्यति ।। (वही)
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