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जैन धर्म का मौसिक इतिहास-द्वितीय भाग [दीक्षा के प० मार्य . गणधर के पद पर नियुक्त करते समय उन्हें दीर्घजीवी और पंचम पारक के अन्त तक अनवछिन्न शिष्य-सन्तति वाला समझ कर गणनायक घोषित किया। मार्य सुधर्मा ने तीस वर्ष तक भगवान् महावीर की सेवा में रह कर अपने गएं के श्रमणों को द्वादशांगी का अध्यापन कराने के साथ-साथ प्रभु वीर के समस्त श्रमरण-संघ की समीचीन रूप से व्यवस्था और अभिवृद्धि की। वे चतुर्दश पूर्वधरद्वादशांगो के सूत्र, अर्थ और विवेचन प्रादि के ज्ञाता एवं व्याख्याता ही नहीं अपितु रचयिता भी थे।
भव्य-विराट व्यक्तित्व प्रार्य सूधर्मा ब्राह्मण-परम्परा के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् एवं प्राचार्य तो ये ही पर श्रमण-परम्परा में दीक्षित होने के पश्चात् उनकी प्रतिष्ठा विश्वमान्य हो चली थी। वे नरेन्द्र-सुरेन्द्रों के भी पूजनीय मौर समस्त विश्व के वन्दनीय बन गये थे।
प्रार्य सुधर्मा के शरीर की ऊंचाई सात हाथ थी। आकार-प्रकार से समचतुरस्र संस्थान' और वजऋषभनाराच संहनन' से सुगठित उनकी देह प्रत्यन्त बलिष्ठ, सुन्दर, सौम्य और प्राकर्षक थी। तपाये हुए सोने के समान उनका तेजोमय लालिमा लिये सुन्दर एवं सुगौर वर्ण दर्शक के मन को हठात् विमुग्ध कर देता था। वे अतुल बल, प्रदम्य उत्साह, अटल र्य, प्रवाह माम्भीर्य पौर प्रक्षोभ्य क्षमा एवं शान्ति के सापर थे।
____ आर्य सुधर्मा का बहिरंग व्यक्तित्व जितना पाकर्षक, सम्मोहक और सुन्दर था उससे कई गुना अधिक पाकर्षक, सम्मोहक और सुन्दर उनका प्राभ्यंतर व्यक्तित्व था। वे क्षमा, दया, प्रार्जव, मार्दव प्रादि गुणों के प्रागार तथा विनय, त्याग और तप की प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने तन, मन और इन्द्रियों का निग्रह कर काम, क्रोध, मोह, अहंकार, निद्रा एवं परीषहों पर विजय प्राप्त कर ली थी। वे स्वसमय तथा परसमय के पूर्ण ज्ञाता, जीव प्रणीव प्रादि समस्त तत्त्वों के विशेषज्ञ, उग्र तपस्वी, घोर तपस्वी, धोर ब्रह्मचारी, अनासक्त, विमल ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के धनी, प्रोजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी मोर यशस्वी थे। उनकी साधना उस चरमोत्कृष्ट कोटि तक पहुंच चुकी थी जिसमें जीवन की कामना और मृत्यु से भय का लवलेशमात्र भी अवशिष्ट नहीं रहता।
'णायाधम्मकहानो' के अध्ययन प्रथम, सूत्र दो में प्रार्य सुधर्मा को 'आर्य', 'स्थविर' आदि जिन सम्मानसूचक विशेषणों से सम्बोधित किया गया है, उनसे प्रार्य सुधर्मा के प्रतिभाशाली विराट व्यक्तित्व का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। वस्तुतः प्रार्य सुधर्मा का विराट बहिरंग व्यक्तित्व समस्त श्रमण ' शरीर लक्षणोक्त प्रमाणाविसंवादिन्यश्चतम्रो यस्य सत्समचतुरनम् ।,
[भगवती (टीका) १॥ व प्रश्नोत्थान पृ० ३४] २ भगवती, शतक १ प्रश्नोत्थान पृ० ३४"
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